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अधिकार ]
वैराग्योपदेशाधिकारः [३५७. है इसका विचार कदापि नहीं करता है । अल्पमात्र विचार करेगम तो जान पड़ेगा कि पराभव पापसे होता है और तेरा निजका मात्मा पुण्यहीन है जिससे तुझे पराभव हुआ है। अतएव तेरी दूसरोंसे ईर्षा करना अयोग्य है । यहाँ यह उपदेश कदापि नहीं है कि एक मात्र सन्मान मिलने निमित्त ही पुण्य करना चाहिये, परन्तु किसीसे पराभव हो उस प्रसंगपर भातरौद्रध्यान न कर. नेका और अचूकपनसे पुण्यानुबंधी पुण्यके हेतुभूत विशेष धर्म करनेका उपदेश है।
पापसे दुःख और उसका त्यागपन. किमर्दयन्निर्दयमङ्गिनो लघून ,
विचेष्टसे कर्मसु ही प्रमादतः । यदेकशोऽप्यन्यकृतार्दनः, सह ___ त्यनन्तशोऽप्यङ्गथयमर्दनं भवे ॥१०॥
" तू प्रमादसे छोटे छोटे जीवोंको दुःख देनेवाले ( कार्यों) कर्मों में निर्दयतापूर्वक क्यों प्रवृत्ति करता है ? प्राणी दूसरोंको जो कष्ट एक बार पहुंचाता है वह ही कष्ट भवान्तरमें वह अनन्त वार भोगता है ।" वंशस्थविल.
विवेचन- ऊपरके दो श्लोकोंमें पुण्य करनेका उपदेश किया गया है और यह बतलाया है कि उसके करनेसे अत्यन्त लाभ है । अब पापका त्याग करना बतलाया जाता है। पाप करते समय मानो मन प्रथम तो दूर भागता है, परन्तु बहुत समयके पड़े हुए स्वभाववश वह फिरसे दुष्ट विकारों के वशीभूत हो जाता है। खून करनेवालेका हृदय एक. समय उसे वैसा न करनेकी
प्रमादत्तेः' के स्थानमें कवचित् 'प्रमोदतः ' पाठ है, वह उत्तम अर्थ प्रगट करता है।