________________
४००] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ दशवाँ माया" वैसी ही है। जो कुछ थोड़ा-सा पुण्यधन है तू तो उसको भी खो देता है । तेरी स्थिति उच्च करनेके लिये असंगपन प्राप्त करनेके साधन एकत्र करनेके लिये
और चालु निष्फल उपाधियोंसे दूर रहने निमित्त तुझे अभी पुण्यकी अत्यन्त आवश्यकता है; अतएव जो कार्य सुखसे-सरलतासे करने चाहिये उनको कर और खानेपीनेमें जो बहुत लक्ष्य है उसका परित्याग कर दे । तेरी अभीकी दशामें तो पुण्यधनके बड़े संचयकी आवश्यकता है। जब तेरी जीवनमुक्त स्थिति आयगी तब तुझे पुण्यकी जरूरत नहीं है। वह स्वरूप तुझे समय आनेपर बताया जायगा अथवा तू अपने आप ही उसको समझ सकेगा। थोड़े कष्टसे डरता है और अत्यन्त कष्ट भोगनेके
___कार्य करता है. शीतात्तापान्मक्षिकाकत्तृणादि
स्पर्शाद्युत्थात्कष्टतोऽल्पाद्विभेषि । तास्ताश्चभिः कर्मभिः स्वीकरोषि,
श्वभ्रादीनां वेदना धिधियंते ॥ २५ ॥ __" शीत, ताप, मक्खीके डंस और कर्कश तणादिके स्पर्शसे होनेवाले बहुत थोडे और अल्पस्थायी कष्टोंसे तो तूं भय करता है किन्तु तेरे स्वकृत्योंसे प्राप्त होनेवाली नरकनिगोदकी महावेदनाओं को अंगीकार करता है । तेरी बुद्धिको धन्य है !!"
शालिनी. विवेचन-ज्ञानी गुरुको एक बड़ाभारी आश्चर्य होता हैं कि यह जीव यहाँ तो ऐसा सुखशेली हो जाता है कि यदि कपड़ोंमें थोड़ा-सा भी तिनका लग जावे तो उसे भी सहन