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४०६ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ दशौँ कारण धर्मक्रियाओं की ओर पराङ्मुखपन और योग्य संस्कारों के अभावसे धर्मकी ओर भी उपेक्षावृति प्राप्तव्य है यह ध्यानमें रखने योग्य है, फिर भी समयकी प्रतिकूळताके सम्बन्धमें विशेष कहनेका कोई कारण नहीं रहता है । इस अनुकूलताको देखकर तथा इस जीवकी उन्नति ध्यानमें रखते हुए इस अवसरसे लाभ उठाना अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है ।
यह सम्पूर्ण अधिकार वैराग्यनिमित्त है । उपोरघातमें इस विषयकी आवश्यकता के विषयमें स्पष्टतया उल्लेख किया गया है । यहाँ केवल वैराग्यके कारण ढूंढ़ना होतो वे आसानीसे मिल सकते हैं । यदि हम संसारका कोई भी प्रसंग ले तो उसमें उक्त कारण सहजहीमें प्राप्त हो सकते हैं । प्रेमकी अस्थिरता, प्रेमीकी मृत्युकी सम्मावनी वस्तुका नाश, यौवनका प्रागल्भ्य, वृद्धावस्थाकी मन्दता, पौद्गलिक पदार्थोका परिवर्तनशील स्वभाव ये सब वैराग्यको खिचकर ले आते है, आकर्षितकर लाते हैं,
और मन पर गहरा प्रभाव डालते हैं। यह तो सामान्य बातहुई परन्तु व्यवहारका कोई भी प्रसंग-सामान्य अथवा असाधारण लेनेपर उसमें वैराग्यके कारण मिलजाते हैं । एक मात्र कठिनता प्रसंगके अनुकूल विचार करनेकी है । एक न एक पुत्रके मरण प्रसंगपर शोक किया जाय तो वह विचार कर्तव्य नहीं है, शास्त्रोक्त नहीं हैं, प्रसंगके अनुकूल नहीं हैं । शुभ तथा अशुभ व्यवहारके कार्योंके लिये कितने ही विचार आते हैं, परन्तु साध्य अनुचित होनेसे वस्तुतः कर्त्तव्यभान करानेवाले विचार नहीं आते हैं। इस अधिकारके प्रत्येक श्लोकपर विचारकर उसका अपने व्यवहार में भी उपयोग किया जावे तो यहां वर्णन की हुई स्थिति के बदले में कुछ नवीन प्रकाश, नूतन स्फूरणा, अभिनव अनुभव होगा । परन्तु केवल अवकाशके समयमें ही वाचनेके