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अधिकार ] धर्मशुद्धिः
[३०९ कि) मिमित औषधि व्याधियोंका नाश नहीं कर सकती है।"
वंशस्थविल. विवेचन-"धर्म" शब्दका अनेकों अर्थों में प्रयोग किया जाता है । धर्म अर्थात् अपना कर्तव्य, जैसे मातृधर्म, पितृधर्म मादि; "धर्म" अर्थात् वस्तुस्वभाव । “वत्थुसहाबो धम्मो" ओक्सिजनका धर्म यह है कि हाईड्रोजनके साथ मिलकर पानी उत्पन्न करे; धर्म अर्थात् पुण्य, इस अर्थमें प्राकृत भाषामें यह शब्दप्रयोग किया जाता है। शास्त्रकार इस शनको अनेकोंबार नीचे के अर्थ में प्रयोग करते हैं। वीतरागप्रणीत वचनानुसार मन-वचन-कायाका शुद्ध व्यापार । इस शब्दके अर्बके स्थानमें इसके भावपर ध्यान देनेकी अधिक आवश्यकता है। शब्दार्थ से तो " धारयतीति धर्मः " ( नरकादि अधोगतिमें )पढ़नेवाले जीवको उच्च स्थानमें धारण करे वह धर्म कहलाता है।
दुर्गतिप्रपतजन्तुधारणाद्धर्म उच्यते । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः।
भारी वस्तु पानी में नीचे बैठ जाती है । शुद्ध वर्जन रखनेवाला कर्मसे भारी नहीं होता, इससे कर्म-बन्धन कम होनेसे बह उपर उठ पाता है अर्थात् शिवपुरमें चला जाता है। शुद्ध भात्म-धर्मप्रगट करना ही साध्य धर्म है । प्रत्येक प्रयास, प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक वर्जनका साध्य अनन्तगुण प्रगटकर अक्षयमुख प्राप्त करना वह ही है । इसके साधन सामायिक, पूजा, प्रतिष्ठा, देशसेवा, जनसमूह-सेवा, प्राणीसेवा आदि अनेक हैं । कौन-सा साधनधर्म किस जीवको उपयोगी होगा यह अपने आप निमय कर में। कितनी ही बार साधनधर्म और साध्यधर्म समझने में अत्यन्त भूल करदी जाती है । सामान्य दृष्टिमें कोई साधन चाहे