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अधिकार ]
धर्मशुद्धिः [४१५ गृहणत्सु दोषान् परितप्यसे च चेद,
भवन्तु दोषास्त्वयि सुस्थिरास्ततः॥४॥ ___“ दूसरे पुरुषोंसे तेरे गुणोंकी स्तुति किये जाने पर यदि तू प्रसन्न होगा तो तेरे गुणों की कमी हो जायगी, और यदि पुरुष तेरे दोषों का वर्णन करे उस समय खेद करेगा तो वे दोष अवश्य तेरेमें निश्चल-दृढ़ हो जावेगें।" वंशस्थ.
विवेचन-अपनेमें काव्यचातुर्य, प्रमाणिक व्यवहार, तप, दान, उपदेश देने की अद्भुत शक्ति या ऐसा अन्य कोई सद्गुण या सद्वर्तन हो और उसकी अपने स्नेही, सगे या रागी प्रशंसा करे तो उसको सुननेसे हमको आनन्द मिलता है तथा शिघ्र ही मद भी हो आता है । कितनी बार ऐसा परोक्ष रूपसे भी होता है । मायासे या दिखावके रूपसे यह जीव उस समय कहता है कि ' इसमें कुछ नहीं है, यह तो मेरा कर्तव्य था आदि;' परन्तु ऐसा करनेमें कई समय माया होती है। दूसरे पुरुषोंसे अपनी गुणोंकी प्रशंसा सुननेकी इच्छा हो, अपना वर्त्तन दूसरोंको बतानेकी इच्छा हो, और दूसरे उसकी प्रशंसा करे उसको सुननेकी अभिलाषा हो तो वहाँ गुणप्राप्तिका अन्त हो जाता है । जिनको अपने गुणोंपर गुणोंके लिये ही प्रेम होवे, मनुष्य क्या कहते हैं ? क्या विचार करते हैं ? इसकी परवाह नहीं करते हैं-और न इसका विचार ही करते हैं।
इसी नियमके अनुसार जब अपने दोषोंको सुनकर खेद होता है तब दोष दूर करने की धारणा तथा कर्त्तव्यका भान नहीं रहता है। इसको दूसरे पुरुष क्या कहते है ? इसीकी ओर ध्यान रहता है, जिससे सब बना-बनाया खेल बिगड़ जाता है, और
१ चे स्थाने रे इति पाठः। २ स्तव इति वा पाठः । .