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अधिकार ] धर्मशुद्धिः
[४१७ दोषोंपर तिरस्कार हो ऐसी मनोवृत्ति रखनी चाहिये । इसमें अपनी तथा दूसरोंकी स्तुतिपर ध्यान न दें । प्रमोद होता है वह गुणों का होता है, गुणपर होता है, और गुणों के लिये होता है इसमें यह देखना है कि गुणवान कौन है ? गुणवान पुरुष चाहे वह शत्रु हो, निर्दय वैरी हो, परन्तु उसके सद्गुणों के लिये उसकी भोर आकर्षण होता है । सारांशमें गुणपर गुणों के लिये ही प्रेम होता है। ऐसी स्थिति कुछ विचारपूर्वक टेव डालनेसे प्राप्य है । इसीप्रकार जैसे अपनी निन्दा सुनकर खेद होता है उसी प्रकार शत्रुकी निन्दा सुनकर भी खेद हो तब समझना कि हम जो कार्य करना चाहते हैं वह सिद्ध होनेवाला है। बुद्धिमानी, ज्ञान, विद्वत्ता इन सबका समावेश इस छोटी-सी बातमें हो जाता है। गुणोंपर गुणों के लिये ही प्रेम रखना चाहिये । भर्तृहरि कहते हैं कि दूसरों के अल्पमात्र सद्गुणको भी जो बड़े पर्वतके समान समझकर उनका आदर करता है उसको संत समझ परन्तु मुनिसुन्दरसूरि महाराज तो इससे भी विशेष बतलाते हैं कि जो प्राणी गुणको गुणके लिये आदर करे वह ही बुद्धिमान है, शास्त्रोंके पढ़नेका यही फल है और इसीप्रकार दोषपर दोषके लिये ही जो अप्रीति रखता है वह ही सच्चा ज्ञानी है । इसप्रकारके वर्तनका फल शत्रु तथा मित्रपर एकसा होता है । इसप्रकारके वर्तनसे मनको जो शान्ति और आनन्द मिलता है वह अनिर्वचनीय है और वास्तवमें अनुभवगम्य है । जिस स्थानपर गुण हो वहां राग रखना चाहिये इसमें यह न देखना चाहिये कि गुणवान कौन है ?
परगुणप्रशंसा. स्तवैर्यथा स्वस्य विगर्हणैश्च,
प्रमोदतापी भजसे तथा चेत् ।