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अध्यात्मकल्पद्रुम [ एकादश ऐसा होने पर वे दोष दृढ़ हो जाते हैं-दोषों पर सील लग जाता है और उसके लिये दोष छोड़ना अपनी प्रिय वस्तु छोड़नेके समान हो जाता है, अथवा कईबार दोषको दोष ही नहीं समझता है और दोष छिपानेका प्रयत्न करता है; कारण कि अमुक विचार, उच्चार या प्राचारकी ओर उसका ध्यान नहीं रहता है, परन्तु मनुष्योंके हृदयमें उसके लिये क्या धारणा है
और वे क्या कहते हैं ? इसीकी ओर उसका ध्यान रहता है। यदि मनुष्यकी धारणा उत्तम नहीं होती है तो वह दुःखी होता है। मनुष्यो में प्रान्तरहेतुका विचार कर अपनी सम्मति प्रगट करनेवाले कम होनेसे धारणामें भूल करनेवाले अधिक होते हैं, इसलिये लोकप्रशंसा या जनरुचि पर आधार रखनेवाले बहुत पश्चात्ताप करते हैं तथा दुःखी होते हैं। अवगुण और दोषोंकी भोर हमारा क्या कर्तव्य है उसको विशेषतया स्पष्ट किया जाता है।
शत्रुगुणप्रशंसा. प्रमोदसे स्वस्य यथान्यनिर्मितः,
स्तवैस्तथा चेत्प्रतिपन्थिनामपि । विगर्हणैः स्वस्य यथोपतप्यसे,
तथा रिपूणामपि चेत्ततोसि वित् ॥ ५ ॥
" दूसरे पुरुषों से अपनी प्रशंसा सुनकर तू जिस प्रकार प्रसन्न होता है, उसी प्रकार शत्रुकी प्रशंसा सुनकर भी तुझे प्रमोद हो, और जिस प्रकार अपनी निन्दा सुनकर दुःखी होता है उसी प्रकार शत्रुकी निन्दा सुनकर भी दुःखी हो; तब समझना तू सचमुच बुद्धिमान है । " वंशस्थ.
विवेचन-अपने तथा दूसरोंके गुणोंकी स्तुति सुनकर गुणोंपर प्रमोद हो और अपने तथा दूसरों के दोषोंकी निंदा सुनकर