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अध्यात्मकल्पद्रम
[एकादश
श्लाघार्थिता वा सुकृते मला इमे ॥२॥
" सुकृत्योंमें इतने पदार्थ मैलरूप हैं-शिथिलता, मत्सर, कदाग्रह, क्रोध, अनुताप, दंभ, प्रविधि, गौरव, प्रमाद, मान, कुगुरु, कुसंग, प्रात्मप्रशंसा श्रवणकी इच्छा ये सब पुण्यराशिमें मैलरूप हैं।" उपजाति.
विवेचन-निम्नलिखित पदार्थ पुण्यरूपी कांचपर मैलके समान हैं, ये शुद्ध जलको अशुद्ध बनानेवाले, चन्द्रमामें कलकरूप हैं इसलिये इनको अच्छी तरहसे पहचान लेना चाहिये । यह सम्पूर्ण लीस्ट नहीं है परन्तु मुख्य मुख्यका इसमें समावेश हो जाता है। धर्मकृत्य, आवश्यक क्रिया, चैत्यवंदनादिमें मन्दाना शैथिन्य कहलाता है । दूसरेके गुणोंको सहन न करना, उनकी ओर ईर्षा रखना मात्सर्य कहलाता है । अपनेद्वारा हुए अपकृत्यको भी उचित सबूत करने और ऐसे अभिप्राय तथा तकरारको जानबूझ कर भी मजबूतीसे पकड़ रहना कदाग्रह कह. लाता है । गुस्से होना क्रोध कहलाता है । किसीको दान तथा मान देने पश्चात् , टीप लिखनेके पश्चात् अथवा कोई धर्मकार्य करनेके बाद उस कार्यको भूलरूप समझना अनुताप कहलाता है । मायाकपट अर्थात् वचन और वर्त्तनमें भिन्नभावका होना । शास्त्रोक्त मर्यादानुसार कार्य करनेके स्थानमें उससे उल्टा करना प्रविधि कहलता है । मैने यह बड़ा कार्य किया है इस लिये में बड़ा हूं ऐसा विचार करना गौरव, मान, प्रमाद कहलाते हैं । समकित और व्रतादि रहित धर्माचार्य नामके धारक कुगुरु कहलाते हैं । नीच पुरुषकी संगति करना कुसंगति कहलाती है और दूसरे पुरुषोसें अपनी प्रशंसा सुननेकी इच्छा रखना श्लाघा कहलाती है।