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अधिकार ] वैराग्योपदेशाधिकारः
[४०३ रूसको देखकर आनंद मानता है, किसी समय राजकथा करता है, किसी समय विदेशी राज्यों की लडाईकी बातें करता है, किसी समय नियोंकी कथा करता है, किसी समय चार पाईमें (माचापर) पड़ा पड़ा कई घंटों तक करवटे बदलता (निंद लेवा) रहता है, किसी समय कदाग्रहमें परकर ममत्व करता है, किसी समय ममत्वके लिये संघका तथा जातिका चाहे जितना भी विगाड क्यों न होता हो किन्तु उसका विचार किये बिना ही. अपनी इच्छानुसार कार्य करता है, किसी समय मत्सर करता है, किसी समय कलह करता है, किसी समय असत्य बोलता है, किसी समय निंदा करता है किसी समय चोरी करता है और किसी समय जीवहिंसा करता है-ऐसे ऐसे अनेकों पापाचरण करके यह जीव मलीन होता है, आत्माको मलीन करता है और संसारमें भटकता है । ऐसे पापोंसे आत्माकी शुद्धतापर मेल चढ़ता जाता है और वह अनन्त संसारसमुद्र में झोका खाता हुमा तथा हीलता हुआ बहाण हाथमें नहीं रहता है और पानीके भंवरमें चक्कर लगाता रहता है । हे आत्मन् हे चेतन् ! यह बहुत ध्यान देने योग्य बात है।
वैराग्य उपदेशद्वार इसप्रकार समाप्त हुभा । इस द्वारकी अत्यन्त महत्ता है क्योकि वैराग्यका विषय अत्यन्त महत्त्वका है। इस द्वारके प्रथक्करण करनेकी आवश्यकता नहीं है । प्रत्येक श्लोकके निरपर जो नाम लिखा गया है वे नाम ही प्रथक्करण रूप है । लगभग प्रत्येक श्लोकमें जुदे जुदे वैराग्यके विषयपर विचार प्रगट किये गये हैं। सर्वका सार यह है कि इस जीवको भेदज्ञान होना चाहिये । आत्मिक वस्तु क्या है और पौद्गलिक वस्तु क्या है ? इसका बराबर उचित ज्ञान होना चाहीये । स्वपरकी पहचान