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अध्यात्मकल्पद्रुम
[ दशयाँ है कि जिन कष्टोंके भयसे डरते रहते हैं वे ही कष्ट व्यवहारमें सहन करते हैं। शीत, धूप आदि परीषहके रूपमें सहन नहीं करते हैं, परन्तु परतंत्रतासे सब सहन करते हैं । यह लगभग प्रत्येक दिनके अनुभवका विषय है । इसके परिणाममें दोनों भव बिगड़ते हैं। यहाँ कष्ट भोगते है और परभवमें भी पिछा दुर्गतिमें पड़ते हैं । इसप्रकारकी तेरी प्रथक्करण करनेकी बुद्धिको धन्य है !
उपसंहार-पापका डर. क्वचित्कषायैः क्वचन प्रमादैः,
कदाग्रहैः क्वापि च मत्सराद्यैः। आत्मानमात्मन् ! कलुषि करोषि,
बिभेषि धिङ्नो नरकादधर्मा ॥ २६ ॥
"हे आत्मन् ! किसी समय कषायद्वारा और किसी समय प्रमादद्वारा, किसी समय कदाग्रहद्वारा और किसी समय मत्सर आदिद्वारा आत्माको मलीन बनाता है । अरे ! तुझे धिक्कार है ! कि तू अधर्मसे तथा नरकसे भी नहीं डरता है ?"
विवेचन-यह जीव किसी समय क्रोध करता है, किसी समय अहंकार करता है, किसी समय कपट करता है, किसी समय पैसे-पैसे के लिये झिक झिक किया करता है, किसी समय झूठा अभिनिवेश करता है, किसी समय व्रत-नियमको न लेते हुए भविरतिपनमें आनंद मानता है, किसी समय मनमें अशुद्ध विचारश्रेणीवृद्ध किया करता है, किसी समय अपने कुल, बल, विद्या, धन आदि पर मद करता है, किसी समय स्त्रीमें आसक्त होकर पड़ा रहता है, किसी समय उत्तम उत्तम पदार्थोको खाने निमित्त अनेकानेक कार्य करता है, किसी समय परस्त्रियों के
१ समत्सरायैः इति वा पाठः ।