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अधिकार ] वैराग्योपदेशाधिकारः [३९१ विभाग दिखाता और उनके द्वारा की हुई प्रशंसा सुन कर मनमें बहुत प्रसन्न होता था । एक दिन उनके यहाँ एक महन्त आये । दूसरोंकी भाँति उनको भी सम्पूर्ण बंगला दिखलाया और बारंबार उनसे अपनी प्रशंसा सुननेकी अभिलाषा करने लगा, किन्तु महन्त महाराज तो कुछ भी न बोले । यह देखकर सेठ बोला कि " साहब ! प्रथम होलमें आपको जो फरनीचर दिखलाया गया था वह चीनसे आर्डरद्वारा मंगवाया गया है, दीवानखानेका सब फरनीचर जापानी है, ड्राइंगरुमका सब फरनीचर इंगलिश है, आलमारोंपर फ्रेन्चपोलिस मुख्य कारीगरोंद्वारा कराया गया है, चीनी काम सब जर्मन है, और रंग वार्नीश सब जयपुरके चितारोंको बुलाकर कराया गया है।" यह सब वार्ता सुनने पर भी महंत मौन ही रहा। कारण बिना प्रशंसा करनेसे आरंभके भागी होते हैं यह नियम महन्तके मनमें सुविदित था । अन्तमें सेठने कहाँ ' साहब ! आप क्यों मौन हैं ? क्यों कुछ नहीं कहते हैं ? " महंतजी प्रसंग उपस्थित होने पर बोले “ सेठ ! मैं तुम्हारे गृहके फरनीचर, बनावट आदिका ही विचार कर रहा हूँ; परन्तु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि घरकी बनावटमें तू ने एक बड़ी भारी भूल की है।" सेठको आश्चर्य हुआ कि ऐसे सुन्दर फरनीचरसे फरनीश किये हुए बंगलेमें कौन-सी बड़ी भूल रह गई होगी ! स्वाभाविकतया 'भूल क्या है ? ' ऐसा प्रश्न उठाया । प्रत्युत्तरमें महंत बोला कि 'सेठ ! तू ने जो ये द्वार रखे हैं ये न रखने चाहिये थे।' सेठने कहाँ · महाराज ! आप यह क्या फरमाते हैं ? बिना द्वारके मकान कैसे हो सकता है? ' महंत कहता है कि " मैं सकारण ही कहता हुँ । एक दिन ऐसा भायगां कि दूसरे पुरुष तुझे इन द्वारों से बाहर निकाल देगें, और फिर तुं कभी भी