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अधिकार] वैराग्योपदेशाधकारः [३८९ नहीं होती है । अमुक गुणस्थान प्राप्त होनेके पश्चात् जब प्रसंग अनुष्ठान प्राप्त होता है अर्थात् जब आत्मपरिणति इतनी सीधी हो जाती है कि बिना धारणाके भी शुद्ध वर्तन ही हो तो फिर 'कर्मक्षय ' की भी कामना नहीं रहती है। कीर्ति, लाभ या .. ऐसी इच्छा रखकर अनुष्ठान करनेकी आज्ञा नहीं है, परन्तु कर्मक्षयका निमित्त ध्यानमें रखकर उस कामनासे अनुष्ठान करनेकी आज्ञा है और जब असंग अनुष्ठान प्राप्त होता है तब वह कामना भी अपने भाप चली जाती है। भक्तिमार्गकी पुष्टिके लिये प्रभुके चरणों में सर्व अर्पण करनेका जो प्रवाद श्रीमद्भगवद्गीतामें कहा गया है उसका इस विषयके साथ विशेष सम्बन्ध नहीं है; कारण कि उसमें अपनी स्वस्थिति-अधिकार अथवा योग्यता बिना किसी भी फलकी अपेक्षा रखे बिना कार्यकर्म करनेकी आज्ञा है । इसप्रकार वर्तन यहां इष्ट नहीं है, कर्मक्षयका निमित्त रहने पर ही नये बंधनेवाले अशुभ कर्मोका भय और मोक्ष प्राप्तिके अनुकूल शुभ कर्मों पर उचित लक्ष्य रह सकता है । इसप्रकारके अनुष्ठानोको जैन परिभाषानुसार 'सकाम' अनुष्ठान कहे जाते हैं।
पापकर्मों में भलाई माननेवालेके प्रति. प्रगल्भसे कर्मसु पापकेष्वरे,
यदाशया शर्म न तद्विनानितम् । विभावयंस्तच्च विनश्वरं द्रुतं,
बिभेषि किं दुर्गतिदुःखतो न हि ? ॥१९॥
" जिन सुखोंकी इच्छासे तू पापकों में मूर्खतासे तल्लिन हो जाता है वे सुख तो जीवितव्य बिना किसी कामके नहीं है और जिन्दगी तो शीघ्र ही नाश होनेवाली है ऐसे