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३८८ ] अध्यात्मकल्पद्रम
[ दशवाँ विवेचन-यह प्राणी पैसोंके लिये और कर्मके वशीभूत होनेसे शीत, धूप, भूख, प्यास आदि सब सहन करता है, दो बजे खाता है, सब दिन भूखा रहता है, उत्तेजित शैठोंके विचित्र आज्ञाओंका पालन करता है, मार खाता है और स्वाधीन तथा पराधीनरूपसे सर्व प्रकारके दुःख भोगता है। इसी प्रकारके कष्ट कर्मक्षयकी अभिलाषासे सहन करने पर यतिगण मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस जीवकी अभिलाषामें फेर होनेसे इसको लाभकी प्राप्ति नहीं होती है । जो यदि प्रथम अधिकारमें कहेअनुसार स्वरूपवाली मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ ये चार भावनाए रखकर उचित रीतिसे यदि दुःख सहन किये जायें तो कार्य सफल हो सकता है । मेघकुमार हाथीके भवमें करुणा लाकर जो तीन दिन तक पैर ऊंचा रक्खा उससे कितना लाभ प्राप्त किया ? हजारों वर्ष पर्यन्त घोर तपस्या करने पर भी यदि मनमें पौद्गलिक सुखकी अभिलाषा हो तो अज्ञानसे कष्टद्धारा ऊलटी संसारकी वृद्धि होती है । अपितु दूसरी प्रकारसे देखा जावे तो एकेन्द्रिय, बेइंद्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिंद्रियपनमें उसी प्रकार पंचेन्द्रियतिथंच पनमें यह जीव कर्मक्षयकी इच्छा बिना अनेकों दुःख सहन करता है। जो दुःख इस जीवने सहन किये हैं उससे कम दुःख भी यदि यह पौद्गलिक सुखकी अभिलाषा बिना सहन करे तो इसके सदैवके लिये दुःखोंका अन्त हो जाय । ऐसे दुःख समकितदृष्टि जीव पुद्गलके सुखकी बुद्धि सिंवा सहन करते हैं इससे उनको सकामनिर्जरा हो जाती है। 'सकाम' शब्दका अर्थ यहाँ विचारने योग्य है । सकाम अर्थात् इच्छापूर्वक-देखभालकर-समझकर किया हुआ कार्य; परन्तु इसमें फलापेक्षा नहीं होती और यदि होती है तो एक मात्र कर्मक्षय करनेकी ही होती है, पौद्गलिक सुख मिलनेकी