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अधिकार ] वैराग्योपदेशाधिकारः [ ३९३ के दुःख और वहाँ होनेवाली अन्यान्यकृत, क्षेत्रज और परमाधामीकृत वेदनाका स्वरूप सुनकर यह जीव कंपायमान हो जाता है, दुःखी होता है और घबराने लगता है। दूसरे तिर्यच
आदिके अवाच्य दुःखोंको सुनकर भी निःसासा डालता है । स्वयं जानता है कि पापकोंके करनेसे नारकी तथा तिर्यचके अनेकों दुःख होते हैं, फिर भी स्वयं तो पाप ही किया करता है । शाखश्रवणके समय कम्पायपन और कार्यरेखा इन दोनोंके बीचमें दिखाता विरोध है । जिसप्रकार सुखकी अभिलाषावाले सुख के विचारसे ही दोड़ते हैं और फिर उस विचारके अनुसार । कितना ही कष्ट सहन करके सुख प्राप्त करनेका प्रयास करते हैं इसीप्रकार दुःखके परित्यागकी अभिलाषा रखनेवाले उसी बिचारसे उस विचारके अनुकूल मार्गमें दौड़ते होते तो नारकीका भय कभीका कम हो गया होता, अर्थात् संसारी जीवके दुःख मिट गये होते । इससे यह तात्पर्य है कि जिन दुःखोंका वर्णन सुननेमात्रसे ही कम्पायपन-रोमांच उत्पन्न होता है वे दुःख जिन पापकोंसे होते हैं उन पापकर्मोको करना छोड़ दो।
___ सहचारिकी मृत्युसे बोध. ये पालिता वृद्धिमिताः सहैव,
स्निग्धा भृशं स्नेहपदं च ये ते । यमेन तानप्यदयं गृहीतान्,
ज्ञात्वापि किं न त्वरसे हिताय ॥ २१ ॥
"जिनका तेरे साथ पालन-पोषण हुभा और जो बड़े भी तेरे साथ ही साथ हुए, अपितु जो तेरे अत्यन्त स्नेही थे और जो तेरे प्रेमपात्र थे उनको भी यमराजने