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अधिकार ] वैराग्योपदेशाधिकारः [३९५
यैः समं क्रीडिता ये च भृशमीडिता, यैः सहाकृष्महि प्रीतिवादम् । तान् जनान्वीक्ष्य बत भस्मभूयं गतान , निर्विशङ्काः स्म इति धिक् प्रमादम् ! ॥
इस श्लोकका भाव ऊपर मिस्नेअनुसार ही है। ऐसे निकट. वृति स्नेहीको भस्म होते देखते हैं फिर भी हम तो निःशंक होकर घूमते रहते हैं । वास्तवमें प्रमादको धिक्कार है ! । इस सबसे यह प्रयोजन है कि प्रत्येक प्राणीको संसारकी अस्थिरता समझकर, विचारकर स्वहित क्या है यह समझते शिखना चाहिये इतना ही नहिं अपितु आचरण भी ऐसा करना चाहिये कि जिससे स्वहित.बुद्धि प्राप्त हो सके। पुत्र, स्त्री या सगेसम्बन्धियों निमित्त पाप करने
वालोंको उपदेश. यैः क्लिश्यसे त्वं धनबन्ध्वपत्यः,
यशः प्रभुत्वादिभिराशयस्थैः । कियानिइ प्रेत्य च तैर्गुणस्ते,
साध्यः किमायुश्चविचारयेवम् ॥ २२ ॥
"कल्पित धन, सगे, पुत्र, यश, प्रभुत्व आदिसे (आदिके लिये ) तू दुःख उठाता है; परन्तु तूं विचार कर कि इस भवमें और परभवमें इनसे कितना लाभ उठा सकता है और तेरा आयुष्य कितना है ?"
उपजाति. विवेचन हे भाई! लक्ष्मीके लिये जैसा ऊपर बताया गया
१ क्वचित् प्रथम पंक्तिमें “यै क्लिश्यते बन्धनबन्ध्वपत्य " ऐसा पाठान्तर है, परन्तु जिसका अर्थ बन्धनतुल्य बन्धु अपत्यसे तुं कष्ट पाता है परन्तु वि०" इसप्रकार करना चाहिये ।