________________
अधिकार ] वैराग्योपदेशाधिकारः अष्टाङ्गयोगं च विनापि सिद्धीवातूलता कापि नवा तवात्मन् ॥ ८॥
" तेरेमें गुण नहीं है फिर भी तू गुणकी प्रशंसा होना सुनना चाहता है, बिना पुण्यके सुख तथा ख्यातिकी अभिलाषा रखता है, इसीप्रकार अष्टांगयोग विना सिद्धियोंकी वाञ्छा करता है । तेरा बकवादपन तो कुछ विचित्र ही जान पड़ता है।"
उपजाति. विवेचन-इस जीवको एक ऐसी टेव पड़ गई है कि . अपने में न हों उन गुणोंका भी दावा रखता है। गुण नहीं होने पर भी उनके होनेका दावा रखना अथवा उन गुणों के होने की स्तुति होने की इच्छा रखना यह मूर्खता है। इसीप्रकार पुण्य बिना शेठ बन कर गाड़ीमें फिरनेकी या मानप्रतिष्ठा रखनेकी इच्छा रखना व्यर्थ है । संसारके भाग्यशाली प्राणियोंको क्या तू ने नहीं देखा कि जो उत्पन्न होनेके समयसे मृत्यु समय तक दुःखका विचार भी न कर सके।
श्रेणिक नामके राजाको कीराणा ( करियाणु,) समझकर "श्रेणिकको बखारमें डालदो" ऐसा कहनेवाले शालिभद्र कितने सुखी होंगे ? परन्तु पुण्य किये बिना ऐसे सुख की आशा रखना मूर्खता है । वृक्ष लगाये बिना फलकी आशा रखना व्यर्थ है । यह जीव ऐसी वांछा निरन्तर किया करता है यह अनुभवसिद्ध हकीकत है परन्तु कारण जाने बिना कार्यकी अभिलाषा रखना तद्दन मूर्खका खेल है । सुख की निरन्तर अभिलाषा रखना और उसके कारणभूत धर्मको न करना इसको मूर्खता न कहा जावे तो क्या कहा जावे ? उसको सुख किस प्रकार मिल सकता है ? इसी
१ अणिमा आदि पाठ सिद्धियें हैं । धर्मरत्नप्रकरण प्रथम भाग तथा आदीश्वर चरित्र देखिये ।