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३६० ] अध्यात्मकल्पद्रुम . [ दशयां मृत्यु पैरके नीचे मौका देख रही है। तिसपर भी काल कब होगा यह नहीं जानता है, फिर भी एक घड़ीभर भी शान्तिसे नहीं बैठ सकता है । चारों और हल्लागुल्ला मचाता रहता है। एक ओर गाड़िये दौड़ाता है तो दूसरी और नाच नचाता है। इस प्रकारकी प्रवृत्ति तथा मोजशोकमें, विषय तथा कषायमें, अप्रमाणिकपन तथा अभिमानमें आया है उसीप्रकार खाली हाथ चला जाता है । अरे ! काल के एक सपाटेमें उंधा पड़नेवाला मोक्षाभिलाषी प्राणी ! जरा चेत, पापाचरण करनेसे डर और यह विचार कर कि संसारकी वास्तविक स्थिति क्या है ? सर्पके मुंहमें पड़ा हुआ है, चबा जानेमें एक घडीभरकी भी देरी नहीं है, फिर भी मेढ़क अन्य जीवोंका भक्षण करता है । ऐसा अज्ञानी कौन हो सकता है ? परन्तु विचार कर देख तो जान पड़ेगा कि तू ही ऐसा अज्ञानी है।
माना हुमा सुख-उसका परिणाम. आत्मानमल्पैरिह वञ्चयित्वा,
प्रकल्पितैर्वा तनुचित्तसौख्यैः ॥ भवाधमे किं जन! सागराणि,
सोढ़ासि ही नारकदुःखराशीन् ॥१२॥
"हे मनुष्य ! थोड़े और वह भी माने हुए शरीर तथा मनके सुख निमित्त इस भवमें तेरी आत्माको वश्चित रख कर अधम भवोंमें सागरोपम तक नारकीके दुःख सहन करेगा।"
उपजाति. विवेचन-सुख क्या ? उसका ख्याल है ? सामान्य 'पुरुषकी दृष्टिमें कई बार जो पापाचरण करनेवाले पुरुष सुखी प्रतीत होते हैं उसका यहाँ स्पष्ट खुलासा किया जाता है। पांच