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अधिकार ] वैराग्योपदेशाधिकार
[३६१ पचास हजार या लाख रुपये मिले उसको यदि सुख कहते हो तो वह भी अल्पस्थायी है और जिसको तुम सुख कहते हो वह सुख नहीं है परन्तु वह केवल मात्र माना हुआ सुख है । बराबर विचार करके देखना कि इसमें क्या सुख है ? देखो संसारका सब अनुभव प्राप्तकर राजर्षि भर्तृहरि भी लिखते हैं कि:- तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि, : तुधातः सशालीन्कवलयति शाकादिवलितान् । __“प्रदीप्ते रागाग्नौ सुदृढ़तरमाश्लिष्यति वधूं, - प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः॥
__ जब तृषासे कंठ शुष्क जान पड़ता हो तब ठंडे पानी : पीनेकी अभिलाषा करता है किन्तु इसमें सुख क्या है ? क्षुधा • से पीड़ित होने पर चावल शाक आदि खाता है, परन्तु इसमें
सुख क्या है ? रागानिके प्रदीप्त होनेपर स्त्रीका संयोग करता है इन सबमें क्या सुख है ? व्याधिकी औषधिको यह जीव भूलसे सुख मानता है । थोड़ा सा विचार करेगा तो मालूम होगा कि इसमें सुख जैसा कुछ नहीं है । इस माने हुए सुख के झूठे ख्यालके वशीभूत होकर यह प्राणी नीचसे नीच दुष्ट काँको करके अधोगतिको प्राप्त होता है। इन सबका कारण एक ही है कि वास्तविक सुख क्या है ? पौद्गलिक सुख कैसा है ? किसको है ? कितना है ? कब है ? क्यों है ? किस परिणाम वाला है ? इसका उचित विचार नहीं करता है, विचार करनेवाले जो निःस्वार्थ बुद्धिसे कहनेको आते हैं उसको तू सुनता भी नहीं है और संसारवमल में फंसा करता है । परिणामस्वरूप । असंख्य वर्षोंसे होनेवाले एक पल्यीपम जैसे दश कोड़ाकोडि पल्योपमसे होनेवाले एक सागरोपम जैसे अनन्ता सागरोपम तक .