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३६२] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ दशवाँ कालको नरक निगोदमें निकालता है। मनुष्यभव अनन्तकाल परिभ्रमण करने पर कभी कभी ही प्राप्त होता है उसको भी तूं इसप्रकार निरर्थक बना देता है और फिर शेषकाल संसारमें भटक भटक कर पूरा करता है।
सागरोपमका बराबर प्रमाण प्रवचनसारोद्धार ग्रंथसे जान लें । यहाँ पर इसके लिखनेका यह तात्पर्य है कि एक ओर इस भवका थोड़ासा सुख देखे और दूसरी और उसके परिणाम स्वरूप नारकी तथा निगोदके अनन्त दुःख कितने वर्षों तक सहन करना होगा उसका विचार करें। बुद्धिमान्को तो यह उपदेश बराबर विचारने योग्य है ।
प्रमादसे दुःख शास्त्रगत दृष्टान्त. उरभ्रकाकिण्युदबिन्दुकान
वणिक-त्रयीशाकटभिक्षुकायैः। निदर्शनारितमय॑जन्मा,
दुःखी प्रमादैर्बहु शोचितासि ॥ १३ ॥
"प्रमाद करके हे जीव ! तूं मनुष्य भवको निरर्थक बना देता है और इसलिये दुःखी होकर बकरा, काकिणी, जलबिन्दु, केरी, तीनवनिये, गाड़ीवान्, भीखारी, आदिके दृष्टान्तोंके समान तूं बहुत दुःख पायगा।" उपजाती.
विवेचन-प्रमादसे यह जीव मनुष्यभव हार जाता है और अत्यन्त दुःखी होता है यह हम देख चुके हैं । निम्नस्थ दृष्टान्त श्री उत्तराध्ययन आदि मूलसूत्रोंमें आये हुए हैं, उनमें मनुष्यभव हार जाने पश्चात् 'कितना पश्चात्ताप होता है और वह भव फिर मिलना कितना कठिन है यह बतलाया गया है । यह दृष्टान्त विशेषतया मनन करने योग्य है । टीकाकार कहते हैं कि