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अध्यात्मकल्पद्रुम [दशवाँ सुख नहीं मिलेगा और परभवका सुख तो तूं चारित्रके परिणामसे भ्रष्ट हुआ तबसे ही हार गया है; कारण कि उसके उपायरूप तपसंयमको तू ने परित्याग करदिये हैं। शुद्ध चारित्र-व्यबहार न रखनेवाला दोनों प्रकारसे भ्रष्ट होजाता है। संतोष रखनेवालेकोंशुद्ध व्यवहार करनेवालेको प्रवृत्तिकी मारामारीसे होनेवाली मनकी व्याकुलताके अभाव उपरान्त कर्तव्यपालन करनेकी शांति और
आनंद होता है वह भी उसके लिये दुर्लभ होजाता है और वर्तन का फल भी नहीं मिल सकता है। इस उभयभ्रष्ट स्थितिपर बहुत कुछ विचार करना योग्य है । काकिणीके दूसरे दृष्टान्तानुसार यह दृष्टान्त भी मनुष्यभवसे घटाया जा सकता है । यहाँ उदकबिन्दुतुल्य विषय, देवतुल्य गुरुमहाराज और क्षीरसागरतुल्य सम्यक्त्व या चारित्र समझे ।
४ आम्र दृष्टान्त. __एक राजा आम खानेका अत्यन्त शौखिन्द था अतएव वह सदैव एक आम खाया करता था। एक दिन शरीर में वायुका प्रकोप हुआ जिसके जोरसे विशुचिका (पेटमें दर्द, शर्दी और गुल्म ) हो गई, उससे उसे इतना कष्ट हुआ कि किसी स्थान पर ठहरना अच्छा न लगा, बड़े बड़े वैद्योंको बुलाया गया, अनेक उपाय किये गये, तब शान्तमें महान् प्रयास करनेपर विशुचिकाका अन्त हुआ; परन्तु वैद्यों ने इसके पश्चात् सदैवके लिये उसे आम खानेसे मना किया, कहा कि यदि आम खाया जायगा तो वह मृत्युका शिकार हो जायगा, अतएव उसके स्वादका भी विचार न करना चाहिये और उसकी ओर देखना भी नही चाहिये । यद्यपि राजाको यह बात पसन्द नहीं थी फिर भी अपने शरीर निमित्त राजाने अपने राज्यमेंसे सर्व आम्रवृक्षोंको उखड़वा दिथे । फिर ऐसा हुआ कि एक समय राजा आखेट करनेको राजमहलसे