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३७४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ दशवाँ लिये कहा कि “ यदि आप मेरे पर प्रसन्न हो तो कृपा करके
आपका घड़ा मुझे दे दीजिये । " महानुभाव सिद्धपुरुषने शिघ्र ही अपना घड़ा उसे दे दिया । भिक्षुक अपने प्रामको गया और घटके प्रभावसे उत्तम हवेली, शय्या, नवयौवना स्त्री, फरनीचर श्रादि अनेक सुखकी सामग्री उत्पन्न कर स्वयं आनन्दमें रहने लगा, अपने कुटुम्बको भी सुखी बनाया । एक दिन मद्यपान कर मस्त हो गया और लहरमें आ कर घड़ा ले कर नृत्य करने लगा। दुर्भागीके नसीब महान नहीं होते हैं । समय समाप्त हुमा, पापोंका उदय हुमा, घड़ा सिरसे गिरा और फूट गया। उस समय वह क्या देखता है कि स्वयं गन्दे स्थान में खड़ा है । घर, स्त्री, भोग, सबका नाश हो गया । यदि उसने विद्या सिखी होती तो सबको फिरसे उत्पन्न कर सकता था, परन्तु अब तो कुछ भी नहीं हो सकता था।
उपनया-एक मात्र प्रमादसे भिक्षुक ने अपनी सर्व प्राप्त सामग्रीको खो दिया था, इसी प्रकार मनुष्यभवमें धर्माराधन योग्य सर्व सामग्री प्राप्त होने पर भी यदि प्रमादसे तूं उस सबको खो देगा तो उसके परिणामस्वरूप भविष्यमें तुझे पश्चात्ताप करना पड़ेगा । इस हकीकतको आगले दृष्टान्तमें बहुत स्पष्ट कर दिया है । दूसरा सार यह ग्रहण करनेका है कि मनुष्य बहुधा तात्कालिक लाभकी ओर दृष्टि दौडाता है । यदि भिखारी ने प्रारंभमें कष्टसाध्य विद्या सिखी हाती तो प्रारम्भमें तो उसे कुछ प्रयास करना पड़ता; किन्तु फिर सदैवका कष्ट दूर हो जाता। परन्तु पुरुषको तो यदि बैठे २ कुछ वस्तु मिलती हो तो वह उठने का प्रयत्न भी नहीं करता है । यह बहुत ही बुरी टेव है और अनेकों पुरुष तात्कालिक लाभकी लालसासे ही अन्यायी कार्यों में प्रवृत होते हैं । दूसरा यह समझने का है कि