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है और परभवमें भी हीनगति होती है, तो फिर क्या करना चाहिये ? यही कहनेका है कि उपार्जित धनको शुभमार्गमें व्यय करो । धनव्यय करनेके अनेक मार्ग हैं, जिनविष स्थापन, जिनमन्दिरोंका जीर्णोद्धार, पुस्तकें लिखाना, छपवाना, उनका रक्षण करना और पुस्तकालय बनाना, लाईब्रेरी ( Library ) बनाना तथा केलवणीका प्रचार करना, साधुसाध्वियों, स्वामीभाइयों और बहिनोंको उत्कर्ष बनाना, अनाथ का प्रतिपालन करना और शासनकी शोभा बढ़ाना-ऐसे ऐसे अनेकों उपयोगी स्थान हैं, उनमें जिन जिनमें आवश्यकता जान पड़े और जिन स्थानोंमें व्यय करना उत्तम तथा प्राशययुत जान पड़ता हो वहाँ व्यय करना चाहिये । द्रव्यव्यय करते समय संसारकी आधुनिक स्थिति और आवश्यकता पर विशेष ध्यान रखना चाहिये । जो ऐसी उत्तम भावनासे द्रव्य ज्यय किया जावे. तो संसारदुःखसे शिघ्र ही छुटकारा हो सकता । शास्त्रकारका मुख्य फरमान है कि सात क्षेत्रमें धनको व्यय करना चाहिये। उनमें भी जो क्षेत्र सिद्धि देनेवाला हो उसकी ओर प्रथम ध्यान देना चाहिये । जिमनवार करनेकी इस जमाने में अनेकों पुरुष सोचविचार कर मनाई करते हैं। इससे यह मतलब कदापि नहीं है कि उनको लडू कडवे लगते हों, परन्तु वे समझते हैं कि भोजके स्थानमें श्रावकोंकी स्थिति सुधारने की, उनको उद्यमी बनाकर अपने पैरों पर खड़े करनेकी और अपढ़को विद्या प्राप्तिके साधन दिलाकर जैनप्रजाको दूसरी प्रजाओंसे समानता दिलानेकी प्रथम आवश्यकता है । इसीप्रकार जिनमन्दिर बढ़ानेके स्थानमें उनके उपासकोंको बढ़ानेकी और जो जिनमन्दिर हैं उनके रक्षा करनेवालोंको उत्पन्न करनेकी अधिक