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अध्यात्मकल्पद्रुम
[ नवमी निकाल डाला हो तो फिर यदि क्रियारूप पौषधि गुण न करे तो इसमें उसका क्या दोष है ? इसप्रकार मनमें से अस्थिरता निकालकर उसको तहन दृढ़ बना देना चाहिये । मनकी वक्रता, जड़ता, शून्यता और अस्थिरता जीवको बहुत फंसानेवाली है; अर्थात् बात यह है कि जैसा तैसा विचार करनेवाला भी यह जीव है-और विचारपर अंकुश रखनेवाला भी यही जीव है; इसलिये जबतक अंकुश रखनेकी आवश्यकता और मनको वशमें करना ठीक ठीक न समझा हो तबतक बहुतसे जीवोंका तो इस विषयकी और ध्यान भी नहीं जा सकता है । इससे प्रगट होता है कि मनको शुभ योगों में प्रवृत्त करनेसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है
और मनको निरंकुश छोड़ देनेसे अधःपतन होता है । ये तीनों नियम बराबर ध्यानमें रखने चाहिये । मनका तदन निरोध बहुत उत्कृष्ट स्थितिवाले को होता है इसलिये यह ऊँची श्रेणिके अधिकारियों निमित्त है । इस सम्पूर्ण प्रस्तावमें मनमेंसे संकल्पविकल्प कम करने, अस्थिरता दूर करने तथा ऐसा करनेपर मनको शुभ कार्यों में प्रवृत करनेका उपदेश किया गया है। अधिक अधिकारी निमित्तशाबके अनेकों प्रन्थ हैं। ____ उक्त न्यायसे परवश मनवाले जीव पुण्य उपार्जन नहीं कर सकते हैं, पाप उपार्जन करते हैं और उनके फलरूप दुःखोंका उपभोग करते हैं । एकबार गिरने पर ठहरना तथा फिरसे चढ़ना बहुत कठिन हो जाता है । इस सम्बन्धमें पर्वतसे गिरते हुए पत्थरका दृष्टान्त काफ़ी है । ऐसी स्थितिको प्राप्त हुए जीवकी बहुत बुरी दशा होती है और वह नीचेसे नीचे उतरता जाता है। विद्वान् भी मनोनिग्रह घिना नरकगामी होते हैं.
अकारणं यस्य च दुर्विकल्पै१ सु इति वा पाठः ।