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अधिकार ] वैराग्योपदेशाधिकारः [३४१ तावद्यतस्व परिणामहिताय तस्मिशिछन्ने हि कः क च कथं भवतास्यतन्त्रः ॥२॥
"अरे! जीव तू क्या देखकर अहंकार करता है ? क्यों हँसता है ? पैसों तथा कामभोगोंकी क्यों अभिलाषा करता है ? और किसपर निःशंक होकर कुतूहलसे खेल करता है ? क्यों कि नरकके गहरे गड्ढे में ढकेल देनेकी अभिलाषासे मृत्युराक्षस तेरे समीप दौड़ता हुआ आ रहा है। किन्तु उसका तो तू ध्यान भी नहीं रखता है। "
“जबतक लवं भादि कुन्हाड़ोंके प्रहार तेरे आधाररूप जीवनवृक्षको न छेदे तबतक हे आत्मन् ! परिणाममें हित होने निमित्त प्रयास कर उसको छेद देने पश्चात् तूं परतंत्र हो जायगा उसके पश्चात् न जाने कौन ( क्या) होगा? कहा होगा और कैसे होगा।
वसंततिलका. विवेचन-अब वैराग्य अधिकार प्रारम्भ होता है। इसके सर्व श्लोक हृदयपर प्रभाव डालनेवाले तथा हृदयके उद्देशसे लिखे गये हैं वे बराबर पढ़ने तथा विचारने योग्य है । अरे चेतन ! तू ने बहुत बड़ी भूल की, किश्चिनमात्र विचार कर; यह जो तू अहंकार करता है, थोड़ी थोड़ी बातमें हँस पड़ता है, चाहे जैसे कार्यमें बिनाबिचारे आनन्दका उपभोग करता है, टेढामेड़ा चलता है और समझता है कि तेरे जैसा इस पृथ्वीपर दूसरा कोई बुद्धिमान नहीं है, ऐसी धारणासे अभिमानी होता जाता है; परन्तु यह अत्यन्त खेद की बात है कि तूं यह नहीं
१ स्यतन्त्रः इत्यस्य स्थाने स्वतन्त्रः इति वा पाठः त्वं कथं स्वायत्तः भविष्यसीत्यर्थः । २ कालविशेष । दो घडीका ७७ वा भाग । एक आँखके पलक मारने को निमेष कहते हैं । अठारह निमेषका एक काष्ट होता है और दो काष्टका एक लव होता है ।