________________
३५० ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[दशवों साधन-चार अनुयोग, अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि अथवा चार वस्तुयें मिलना बहुत दुर्लभ है : मनुष्यपन, धर्मश्रुति, श्रद्धा और संयममें वीर्य ।
बाधक-कुजन्म, कुक्षेत्र, प्रातेकूल द्रव्य, प्रमाद आदि ।
इन सबको तू जानता है, अर्थात् जिस प्रकार तुझे धर्मके साधन और अंतरायका भान है, उसी प्रकार इनके स्वरूप और ऐसा करनेवालेको क्या फल मिलता है यह भी तू जानता है । अतएव तू स्वतंत्र बन । जब परमाधामीके वश हो जायगा तब तो तुझसे कुछ भी न हो सकेगा, परन्तु इस समय तो तुझे अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है कि जिसका फिरसे प्राप्त होना असम्भव है । ऐसा आर्य देश, गुरुका सतत संयोग, सिद्धक्षेत्र ( शत्रुजय ) का सांनिध्य, राजकर्ताका धर्म सम्बन्धमें सब प्रकारकी छूट और लोकोंमें धर्मके पुनरुद्धार करनेकी अभिलाषा-ये सब सामान्य संयोग और तदुपरान्त शरीरसंपत्ति, विद्याभ्यास, धर्मरुचि आदि तुझे जो विशेष लाभ मिले हो उनकों समझ कर इसी भवमें कुछ काम कर | जिस प्रकार व्यवहार में नाम पैदा करनेकी इच्छा होती है उसी प्रकार धर्मके नामपर ख्याती उत्पन्न करनेका प्रयास कर | तेरे स्व आत्महित निमित्त, तेरी जाति निमित्त, तेरे देश निमित्त, मनुष्य समुदाय निमित्त, सम्पूर्ण सृष्टि निमित्त तेरेसे जो कुछ हो सके कर । कुछ न हो सके तो तू जिन संयोगोंमें पड़ा हुआ हो उनमें उत्तम रीति अनुसार तेरा पाठ भजव । यदि तू भविष्य भवपर आधार रखता हो तो यह तेरी भूल है, क्योंकि यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ तुझे ऐसे संयोग प्राप्त हो सकेंगे या नहीं और तेरा उत्तरदायित्व या कर्तव्य क्या है इसका ज्ञान या विवेक तुझे वहाँ रह सकेगा या नहीं, यह भी नहीं कहा जा सकता है। इसलिये इन सब