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[ दशवाँ
किया गया है । व्यवहारनयकी अपेक्षासे तो यह जीव मलिन है इसलिये हे निरंजन ! शब्द से उसे सम्बोधित नहीं किया जा सकता है
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अध्यात्मकल्पद्रुम
कोटे
मदत्याग और शुद्ध वासना. विद्वानहं सकललब्धिरहं नृपोऽहं, दाताहमद्भुत गुणोऽहमहं गरीयान् । इत्याद्यहङ्कृतिवशात्परितोषमेषि,
नो वेत्सि किं परभवे लघुतां भवित्रीम् ॥५॥ "मैं विद्वान हूं, मैं सर्व लब्धिवाला हूँ, मैं राजा हूँ, मैं दानेश्वरी हूँ, मैं भद्भुत गुणवाला हूँ, मैं बड़ा हूँ-ऐसे ऐसे अहंकारों के वशीभूत हो कर तू संतोष धारण करता है; परन्तु परभवमें होनेवाली लघुताका तू क्यों विचार नहीं करता है ? " वसंततिलका. विवेचन - " सर्व लब्धि अर्थात् पण्डितपदप्राप्ति अथवा धन, धान्य, वस्त्र, पात्र, व्रतप्राप्ति अथवा आमर्श औषधि आदि लब्धिकी प्राप्ति । " ( टीकाकार )
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इस जीवको प्रत्येक बाबतमें अहमपनकी ही बात रहती है, इसको न तो संसार के नियमका भान है न कर्मसिद्धान्तका ज्ञान है । यह तो थोड़ा-सा अच्छा कार्य्य हुआ कि मैने किया है ऐसा कह कर बड़प्पन बताने लगता है, और यदि ठीक न हुआ तो कर्म आदिको दोषी ठहरायगा । यह अहंभाव ही संसार है और इसीलिये कहाँ गया है कि ' अहं और मम ये शब्द संसारको अन्धा बनानेवाले हैं ' इस अहम्भावको हटाना अत्यन्त कठिन है । जो वर्तमान युगके मोहनीय प्रवाह में फँस कर इस बड़े दुर्गुण (परन्तु इस युगके माने हुए सद्गुण ) में
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