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यात्मिकल्पद्रुम [ दशवाँ विवेचन-तुझे सुन्दर सुन्दर वस्त्र धारण कर, मधुर मधुर भाषण कर मनुष्योंको खुश करनेका व्यर्थ आडम्बर क्यों करना पड़ता है ? संसारमें मस्त होते हुए वैरागी हनेका दंभ क्यों करना पड़ता है ? तू थोड़ा-सा विचार कर कि क्या तुझे उससे कुछ लाभ होनेवाला है? जो थोड़ासा भी विचार करते हैं वे शिघ्रतया समझ सकते हैं कि जनरंजन करना व्यर्थ है, तो फिर क्या करना चाहिये ? तुझे ऐसा रंजन करना चाहिये कि जिससे आनेवाले भवका सुधार हो और यहाँ भी प्रात्मा प्रसन्न हो। इस उपाय का समावेश आडंबररहित धर्ममें होता है, अर्थात् शुद्ध व्यवहार कर्तव्यका यथास्थित भान तथा उच्च दशा प्राप्त करनेके साधनरूप दान, शील, तप, भाव, ध्यान, धृति, दया, सत्य आदिका पाचरण करनेमें समावेश होता है। इसप्रकारके रंजनसे ही सर्व प्रकारका लाभ होता है ऐसा अपना मन भी साक्षी देगा।
__ श्रीमल्लिनाथजीके स्तवन में कहा गया है कि रंजन दो प्रकारके होते हैं । एक लोकरंजन और दूसरा लोकोत्तररंजन । इन दोनोंमें कौन ग्राह्य है ? भरत चक्रवर्तीके मनमें भी यही प्रश्न उठा था । चक्ररत्न की पूजा पहले करना या पिताश्रीका केवलज्ञानमहोत्सव पहले करना ? ऐसे पारस्परिक सम्बन्धवाले प्रश्न ( Questions of relative duties ) संसारमें कितनी ही बार हमारे सामने उपस्थित होते हैं । उपाध्याय ने कहा है कि "रीजवु एक सांई, लोक ते बात करेरी" मनुष्य चाहे जो कुछ कहे लेकिन हम को तो साईको-प्रभूको प्रसन्न करना है-अर्थात् लोकोत्तररंजन करना है । इसप्रकार जब मन शक्तिशाली होता है तब आत्मा सिद्धि सन्मुख हो जाता है। ... इस युगमें दिखाव करनेका कार्य बढ़ता चला है। जो श्रावक भावक धर्मके आचारोंका देखापमात्र करता है उसको यहां उपदेश