________________
३४२] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ दशवों देखता है कि तेरी स्थिति कितनी है ? तेरे सिरपर मृत्यु नाच रहा है, वह तेरे पर विजय प्राप्त कर तुझे नरकमें ढकेलनेका उपाय सोचा करता है । उस शेतानसे तू सचेत होजा और उससे बचनेका प्रयास कर । तू जो बिलकुल निःशंक हो कर घूमता है यह तुझे योग्य नहीं है । तृ बराबर विचार कर और तेरे शत्रुको पहचान ले कि जिससे वह तुझे विशेष हानि न पहुंचा सके। .... ऐसा कहनेका दूसरा कारण यह है कि यह शरीर धर्मकरणीमें साधनभूत है, किन्तु यह प्रत्येक समय, प्रत्येक घण्टे, प्रत्येक दिवस क्षीण होता जाता है, इसके कालके सपाटे लगते रहते हैं और मृत्यु समीप आती जाती है । इसलिये इस शरीरके साधनसे कोई ऐसा कार्य सिद्ध कर लेना चाहिये कि जिससे परिणाममें आत्महित हो सके । पुरुष बहुधा तात्कालिक लाभकी ओर ही देखता है, परन्तु वास्तवमें परिणाममें होनेवाले लाभकी ओर देखना चाहिये । एक स्त्रीपर बलात्कार करनेवालेको कदाच पांच मिनिट तक आनन्द मिले, परन्तु फिर इस वर्ष पर्यन्त जेलयात्रा करनी पड़ती है अथवा जीवन पर्यन्त देशपार होना पड़ता है तो उसका नाम सुख नहीं कहा जा सकता है । हमारा कल्पित सुख उक्त प्रकारका है। इसलिये इस हकीकतका स्वरूप बारम्बार समझ कर परिणामकी ओर दीर्घदृष्टि से देखनेकी टेव डालना चाहिये । विशेष विचार करनेसे जान पड़ेगा कि दान, शील, तप, भाव, संयम, धृति, कषायत्याग आदि इस कोटिमें आते हैं। इमलिये सुज्ञ पुरुषोंको उसकी ओर लक्ष्य रखना चाहिये। ..
. इसप्रकार तू न करेगा तो भी आयुःस्थितिके सम्पूर्ण होने पर मृत्यु तो उसका दोर तेरेपर अवश्य चलायगी। और फिर तू कौन-सी गतिमें जायगा ? कौन-से स्थानमें