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__ अध्यात्मकल्पनुमा नवमाँ कितने ही में मनमें दस सेरं शक्कर होती है और कितने ही में मनमें डेढ़ मन शक्कर होती है; इसीपकार भौषधमें कड़वेपनकी तरतमता होती है-इसप्रकार रसमें भिन्नता होती है । अब जो रसबन्ध होता है वह अध्यवसायकी चीकाशपर होता है और अनुभवसे ऐसा जान पड़ता है कि ज्ञानवाला निरपेक्षपनसे यदि पापकार्यमें प्रवृत्त हो तो वह जितनी विकाशसे पापकार्य करता है उतनी चीकाश साक्षेपवृत्तिवाले अल्पज्ञ अथवा अक्षको नहीं रहती है अथवा नहीं होती है। कई बार तो कहलानेवाले विद्वानके परिणाम तहन निद्धंस बन जाते हैं। उत्तरदायित्व संदेव ज्ञानानुसार होता है । ज्यों ज्यों ज्ञानकी अधिकता होती है त्यों त्यों उत्तरदायित्वपनकी वृद्धि होती है । विद्वान पुरुषकी यदि भूल हो जाती है तो ठपका अधिक लगता है और कसूर करता है तो दण्ड भी अधिक मिलता है; उसीप्रकार हम देखते हैं कि अज्ञानी पुरुष तो कई बार अज्ञानपनसे भी पापात्मक कार्य कर बैठता है । उसको पापबन्ध नहीं होता है ऐसा नहीं, परन्तु उसकी चीकाश ऊपर बतायेअनुसार बहुत कम होती है; इसलिये विद्वान हैं वे तो अपने पापोंका क्षय कर डालेंगे इसप्रकार कहनेवाले और समझनेवाले शास्त्र के रहस्यको नहीं समझते हैं। ऐसा कहनेवाला ज्ञानी भी वैसा पापाचरण करता रहता है इससे उसके रहस्यको नहीं समझा है । .
ज्ञानका दुरुपयोग किया जाता है तो वह नाश कर देता है और उसी ज्ञानका सदुपयोग किया जाता है तो वह कार्यको सिद्ध कर देता है। राज्यद्वारी जीवनके रोनेधोनेको देखो तो अकारण ही अनेकों बुरे संकल्पविकल्प करने पड़ते हैं और उथलपुथल करनी पड़ती है; इसीप्रकार बड़े व्यापारमें और इसी प्रकार महान कायोंमें करना पड़ता है । ऐसी स्थितिवाला