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३३० ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ नवमां : विवेचन-शास्त्रके किसी भी प्रन्थको पढ़नेसे जान-- पड़ेगा कि तेरहवें श्लोकमें बतायेनुसार मनोनिग्रहसे अशुभ कर्मबन्धन रुकजाता है, पुण्यबन्धन होता है, इतना ही नहीं परन्तु उससे अन्तमें मोक्षकी प्राप्ति होती है । शास्त्रकार बतलाते हैं कि
आत्माको ऊँची सीढ़ी पर चढ़ानेसे पूर्व भूमिकाको शुद्ध बनाना चाहिये । एक दिवार पर चित्र बनाना हो तो प्रथम उसे साफ करना पड़ता है। मनमें द्वेष, खेद, विकल्प, अस्थिरतारूप ( झांखरा ) कुड़ा करकट तथा कचरा पड़ा हुआ हो तबतक भूमिका अशुद्ध कहलाती है और उस भूमिपर चाहे जितने चित्र खिचों, अर्थात् वांचन पढ़ो, विचार सुनो, किन्तु इन सबका उसपर कुछ भी प्रभाव न पड़ेगा ; ऐसा करने निमित्त मनको स्थिर, एकाग्रह, रागद्वेषसंकल्परहित बनानेकी प्रथम आवश्यकता है। एक समय समता प्राप्त होनेपर, स्थिरतास्थापक होनेपर मन वशीभूत हो जायगा। इसप्रकार योगपर विजय प्राप्त होनेसे इन्द्रियोंपर अंकुश लगजाता है और तब छ बाह्य और छ अभ्यन्तर तप करनेकी अभिलाषा होती है और किये हुए तप कर्मोंको तपानेका-निर्जरा करनेका अपना कार्य भी तब ही करते हैं। तबतक बहुत समयतक तो तप करनेकी इच्छा भी नहीं होती है, अथवा अज्ञान कष्टरूप तप फलकी इच्छाके साथ होती है, जो शास्त्रकारकी दृष्टि में लगभग नकामा ही है । इसलिये मनःसंयमपूर्वक यदि तप किया जाता है तो उससे कर्मनिर्जराद्वारा शीघ्र ही मोक्षपदकी प्राप्ति होती है । मोक्षप्राप्ति करके इस संसारके सदैवके कचकचाटका रगड़पट्टीका अन्त करना सब प्राणियोंका अंतरंग हेतु है और इसका मूल साधन मनःसमाधि है । मन की समाधि रखनेका प्रयत्न करना सुन्न पुरुषोंका मुख्य कर्तव्य है।