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अध्यत्मिकल्पद्रुम
[ नयाँ
कम नहीं होती है; कारण कि जब व्यवहारकुशल पुरुष धार्मिक सद्गुणों की ओर ध्यान देते हैं तब वहा भी बहुत सुन्दर काम कर सकते हैं । मनके संकल्पोंका नष्ट होना बहुत कठिन है इसलिये ध्यानकी प्रथम स्थिति में मनको स्वच्छ, स्थिर, रागद्वेषरहित करना कहा गया है। इसप्रकार भूमिका के शुद्ध होजाने पश्चात् योगक्रिया हो सकती है, और इसलिये यमनियम बताये गये हैं । मनको स्थिर करना यह किसी भी गुणके प्राप्त करने की प्रथम सिढ़ी है । इसको सदैव के लिये अपने अधीन करना और प्रभुभक्तिके ध्यान में लगाना अत्यन्त कठिन जरूर है परन्तु अशक्य कदापि नहीं है ।
प्रारंभमें मनमेंसे सदैवके लिये संकल्पों को दूरकर देना कठिन है, इसलिये अभ्यास रखने के अभिलाषियोंको मनमें कुत्सित संकल्पों के आने पर उनको दबा देना चाहिये; जिसप्रकार बालकको लात लगाते हैं उसप्रकार उसके भी चाबूक लगाना चाहिये; फिर भी मनके बंधारणानुसार वे संकल्प फिरसे दुगनी शक्ति से हल्ला करेंगे । जो यदि उस समय अधिक दृढ़ता रक्खी जावे तो धीरे धीरे टेव पड़ने से मनपर अंकुश लगता जाता है । दूसरा मनके विचार संयोगानुसार होते हैं अतः संयोगों को उत्तम बना देना चाहिये, गहरा विचार करके निर्णय करना चाहिये और प्रबल कारणों बिना उन निर्णयोंको न बदलना चाहिये । कुछ कष्ट भी जान पड़े तो भी विचारोंको बारंबार नहीं बदलना चाहिये । इस अधिकार में नीचे की हकीकत पर विशेषतया ध्यान आकर्षित किया गया है ।
१ मनको वश में करने की आवश्यकता |
इसके कारणोंमें मनका चंचलपन और इसको वश में करने पश्चात् उसकी शक्तिकी ओर विशेषतया ध्यान आकर्षित किया गया है । ( १-२-४ )