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वाधिकार] विसदसनाधिकार
[ १२७ हतं मनः, शास्त्रविदोऽपि नित्यम् । . घोरैरनिश्चितनारकायु
त्यो प्रयाता नरके स नूनम् ॥ १४ ॥ . "जिस प्राणीका मन निरर्थक खराब संकल्पोंसे निर. न्तर पराभवको प्राप्त होता है वह प्राणी चाहे जितना भी विद्वान् क्यों न हो फिर भी भयंकर पापोंके कारण नारकीका निकाचित आयुष्य बांधता है और मृत्यु के मुंहमें जानेपर अवश्य नरकगामी होता है।"
उपजाति. विवेचन-शास्त्रका योग्य ज्ञान रखनेवाला प्राणी जब अल्पज्ञले भी न किये जानेवाले कार्य करता है तब व्यवहारमें शाबरहस्यको न जाननेवाले पुरुष-अज्ञान बालजीव कई बार कहते हैं कि भाई यह तो " जानकार " है इसकों 'शुद्धि करते' आती है भादि शास्त्रका जाननेवाला ही जब ऐसे पापात्मक कार्य करता है तब ही तो दूसरोंको ऐसी टीका करते सुंना गया है । यह भाषा असत्य है, अज्ञानसे उत्पन्न हुई हुई है । जो शास्त्रको जानते हैं, पापको पापरूप समझते हैं और एक नियमरूप निःशुकपनसे एकमात्र मुंहसे क्षमा याचना करले परन्तु यदि दूसरे दिन फिर उसी ढुंगसे वह ही पापात्मक कार्य करे तो उसको भविद्वान्से भी अधिक पाप लगता है; कारण कि स्वयं अच्छी स्थितिको प्राप्त हुआ है और दूसरोंका आलम्बनभूत हुमा है । इस हकीकतको और अधिक समझनेकी आवश्यकता है ।
. पापबंध तथा पुण्यबंध होते हैं उस समय प्रदेशबंधके साथ साथ रसबंध होता है, अर्थात् जो कर्म बन्धते हैं उनकी शुभाशुभता उसीप्रकार तीव्रता मंदता ( intensity) कैसी है इसका निर्माण होता है। दृष्टान्तरूप लड्डु बने हो परन्तु .... पशुभ प्रकृतिका बन्ध'। २ शुभ प्रकृतिका बन्ध । .. ..