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अध्यात्मकल्पद्रुम
[ नवाँ घरमें भी अपने ही स्वजन्य दोषोंसे चुधा तथा वृक्षावश मृत्युका शिकार बनता है।"
उपजाति. विवेचन-चाहे जितनी तपस्या क्यों न करो, प्रीष्मऋतु के तपते हुए दुपहरमें नदीकी गरम गरम बाल्में जाकर माता. पना भी क्यों न लो, परन्तु " सबलग कष्ट क्रिया सब निष्फल, क्यों गगने चित्राम; जबलग आवे नहीं मन ठाम । " यह बात सत्य है । तप करो, ध्यान करो, जप करो, परन्तु ' भगत भया पर चानत बुरी' मनमें इच्छा हो कि छुरी चलानेको उद्यत हो, मनकी वासनाओंका अन्त न हुआ हो, संसारका प्रेम जैसाका तैसा चीकना हो तब तक कष्टक्रिया निष्फल है । संसारके रसिक जीवके यह बात गले उतरते कुछ देर लगेगी । उसको तो प्रवृत्तिद्वारा पैसे एकत्रित कर धर्म करना है, परन्तु शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसा करनेमें न तो धर्मही है न सुख ही है । सुख आत्मारामपनमें विकल्परहित स्थिर मनमें है और जब तक ऐसी स्थिति न हो तब तक जैसे अन्नजलसम्पन्न गृहमें भी प्रमादी पुरुष सुधा तथा तृषासे मा. कुलव्याकुल प्राणी पड़ा पड़ा चिल्लाया करता है, उसीप्रकार यह प्राणी भी सब सामग्री उपस्थित होनेपर भी मनके वशीभूत होकर स्वजन्य दोषोंसे ही' दुर्गतिका भाजन बनता है। इसका पांचवे श्लोकमें विस्तारपूर्वक विवेचन होचुका है । इसलिये इसका यहाँ पुनरावर्तन करना व्यर्थ है !
मनका पुण्य तथा पापके साथ सम्बन्ध, प्रकृच्छताध्यं मनसो वशीकृतात,
परं च पुण्यं, ज तु यस्य तद्वशम् ।
अपने अनेक प्रकारके दोषों के कारण यह जीव दुर्गतिभाजन होताहै । तष्टान्तस्वरूप क्लेश, मन्दता, प्रमाद आदि स्वदोष इसप्रकारके हैं (धनविजय,)
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