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जाना कुतूहलकार तेरह कालाको श्री
मरिकार ]
गुरुके समीप न जाना बह आलस्य, घरके कामोंमें पड़ा रहना मोह, वे मुझे पहचानेंगे या नहीं इससे अवधाका भय, अमिमानसे न जाना स्तंभ, साधुदर्शनसे उल्टा स्वयं कोन करना क्रोध, मद्यपानादिके व्यसनसे न जाना प्रमाद, जाउंगा तो दीप लिखनी पड़ेगी या कुछ देना पड़ेगा ऐसा विचार कर न जाना कृपणता, नारकी आदिके दुःखोंका वर्णन सुनना भय, इष्ट वियोगसे न जाना शोक, मिथ्याशास्त्रसे मोह रखना भज्ञान, बहुतसे कामोंमें फंसा हुआ होनेसे अवकाश न मिलने से न जाना बहुकर्चव्यता, खेल देखने को खड़ा रह जानेसे न जाना कुतूहल, बचोंके साथ खेलनेमें लग जाना रमणत्व, इसप्रकार टीकाकार तेरह काठियोंका वर्णन करते हैं। अधिक जानने की अभिलाषा रखनेवालोंको श्रीजैन धर्म प्रकास तथा चरितावली दूसरा भागमें लिखित तेरह काठियोंकी कथाओंको पदना चाहिये । इन तेरह काठियोंसे मार्ग दिये जाने पश्चात् भी गये न गये समान हो जाय तो वह बहुत बुरा है, अतः यही उपदेश है कि किये हुए धर्मका अहंकार करके तथा दूसरोंकी वा करके उसे न खो बैठे।
. विशेषतया इर्षा न करना. 'पुरापि पापैः पतितोऽसि संसृतो,
दधासि किं रे गुणिमत्सरं पुनः१ । न वेरित किं घोरजले निपात्यसे?
नियंत्र्यसे शृङ्खजया च सर्वतः॥ १४ ॥ "अरे! पहले ही तूं पापोंके द्वारा संसारमें पड़ा है, तो किर और गुणवान् पर इर्षा क्यों करता है ? क्या तूं नहीं जानता है कि इस पापसे तूं गहरे पानी में उतर रहा है और तेरा सम्पूर्ण शरीर सांकलोंसे झकड़ा हुआ है ।" वंशस्थबिल.