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अधिकार ]
शास्त्राभ्यास और वर्तन
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वस्तुस्थितिका सचा चित्र श्रोतालोगोंके सामने रखना और शाब पढ़नेवालेका यह कर्तव्य है कि वस्तुस्वरूपका भान हृदयमें धारण कर उसपर मनन कर तदनुसार वर्तन करे। इन चार गतियोंके दुःखोंका वर्णन जो शास्त्राभ्यासद्वारमें किया गया है उसका कारण ऊपर लिखे अनुसार है । ' विषयप्रतिभास ' ज्ञान अनेकों जीबोंको होता है तब वे वस्तुस्वरूपको समझते हैं, वस्तुको आकृति तथा गुणोंको जानते हैं परन्तु वह सब निरर्थक है। जबतक " तत्त्वसंवेदन " शान होकर उसमें बतायेनुसार वर्तन नहीं है, जबतक हेय, आय, उपादेय की भिन्नता समझकर उसके अनुसार त्याग अथवा आदर नहीं होता है, जबतक ज्ञानका हेतु स्वमहत्त्व की बढ़ती करना ही रहता है तबतक सब व्यर्थ है । इसमें न तो जीव ऊँची सीढ़ीपर ही चढ़ता है न उसका उत्कर्ष ही होता है । ज्ञान उपार्जन करके, चारगतिकी अर्थात् संसारकी वास्तविक स्थिति क्या है, इसका विशेषतया विचार करना हमारा सबसे प्रथम कर्तव्य है।
पाश्चात्य सुखसूत्र और जैन सुखसूत्र में यह सबसे बड़ी भिन्नता है । पाश्चात्य तत्त्ववेत्ता यहाँ सुख ढूंढते हैं । जैन शास्त्रकार कहते हैं कि यह सब निरर्थक भटकना है जहाँ वास्तविक सुख है ही नहीं, वहा ढूंढनेसे क्या मिल सकेगा ? अतः वास्तविक चिरस्थायी सुख प्राप्त करनेका प्रयास करो । इस संसारके विषयोंकी वासना छोड़दो, अभिलाषा कमकर दो, इन्द्रियोंका दमन करो और मनपर अंकुश रक्खो । जैन सिद्धान्तका-शान्त. रसका सार यही है कि इसमवके कल्पित थोड़ेसे सुखके लिये तुम अमन्त भवकी वृद्धि मत करो । शास्त्राभ्यास का यही सार है और इसीकी आवश्यकता है, बाकी सब भ्रममूलक है, बहुधा लोकप्रिय होने का प्रयास है और वह शास्त्रकारकी दृष्टिमें शून्य है।
१ त्याग करने योग्य क्या हैं और अपनाने योग्य क्या हैं इसको निश्चय करनेको शुद्ध ज्ञान ।