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अध्यात्मकल्पद्रुम
" हे चित्तवैरी । मैने तेरा ऐसा कौन-सा अपराध किया है कि जिससे तू मुझे कुविकल्परूप जालमें बांधकर दुर्गतिमें फेंक देता है ? क्या तूं यह मनमें विचार करता है कि यह जीव मुझको छोड़ कर मोक्षमें चला जायगा ( श्रतः मुझको पकड़ कर रखता है ) ? परन्तु क्या तेरे रहने के लिये दूसरे असंख्य स्थान नहीं हैं ? " वसंततिलका. विवेचन - शान्त स्थान में, शान्त समयमें, अनुकूल संयोगो शान्त जीव अपने गत कृत्यों-विचार वर्त्तनका अवलोकन करता है तब उसको यहां वर्णित स्थिति प्राप्त होती है । तब थरमामीटर लगानेवालेके नेत्रों में से बेरके सदृश बड़े बड़े आंसु गिरने लगते हैं । संसार उसको विष सदृश कडुवा जान पड़ता है, इसलिये वह फिर मनको उपदेश देकर भविष्यमें ऐसा न करने को सावधान करता है । यह स्थिति प्रतिक्रमणादि अवस्था में प्राप्त होती है । यह लिखना यहाँ अप्रस्तुत नहीं होता इसलिये लिखा जाता है कि आवश्यक क्रियाके इसप्रकार विचारकर करनेकी अत्यन्त घ्यावश्यकता है । जैसे तैसे डावाँडोल मनसे आधे घण्टे में प्रतिक्रमणको समाप्तकर यह समझनेवाले कि इससे मेरे आत्माका उद्धार हो गया है वह चाहे जो क्यों न माने, परन्तु किये हुए पापका निरीक्षण कर, अन्तःकरण से पश्चात्ताप कर, फिर वैसा कदापि न करनेका निश्चय करना, नहीं करनेका अभ्यास डालना, यह ही आवश्यक क्रियाका उद्देश है । कहनेका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि वैसा न करें परन्तु योग्य रीति से, शुद्ध मनसे करना, ऐसा न हो सके तबतक उस दशाकी भावना रखकर प्रमादरहित होकर करनेका अभ्यास डालना यह ही निर्देश है।
ऐसी शान्त अवस्था में यह जीव ऊँची सीढ़ी. गुणस्थानपर
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