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अध्यात्मकल्पद्रुम
[नवमी करता है और विशेषतया उसकी वृत्ति अस्तव्यस्त स्थितिमें नहीं रहती है।
परवश मनवालेको तीन शत्रुओंका भय. सुदर्जयं ही रिपवत्यदो मनो,
रिपूकरोत्येव च वाक्तनू अपि । त्रिभिर्हतस्तद्रिपुभिः करोतु किं ?
पदीभवन् दुर्विपदां पदे पदे ॥ ६ ॥
" अत्यन्त कठिनतासे जीता जानेवाला यह मन शत्रुके समान व्यवहार करता है, कारण कि यह वचन तथा कायाको भी दुश्मन बना देता है। ऐसे तीन शत्रुओंसे घेरा हुमा तू स्थान स्थानपर विपत्तियों का भाजन होकर क्या कर सकेगा ?"
वंशस्थ. विवेचन-यहाँ जो कुछ कहा गया है वह परवश मनके लिये कहा गया है । परवश मन स्वच्छंद आचरण करता हो इतना ही नहीं परन्तु शत्रुवत् करता है । स्वयं अयोग्य विचार करता है और साथ ही साथ वचन तथा कायाको भी शत्रु बना देता है और इसलिये जीवका अपने वचनोंपर अंकुश नहीं रहता है और वह नीति, धर्म तथा मर्यादाका कुछ भी विचार न कर पापकृत्य करनेको उद्धत होजाता है । इसप्रकार परवश मन स्वयं शत्रुता करनेके उपरान्त अन्य दोको और साथ लेता है और इन तीन दण्डोंसे दण्डित जीव अपमानित होता है, दुख भोगता है, ग्लानि उठाता है, मार खाता है, मद्यपीने के लिये भटकता रहता है। बिल्ली दूध देखकर ललचा जाती है, परन्तु शिर. पर गिरनेवाले दण्डे का विचार तक भी नहीं करती है । चोर मार्गमें पड़ी हुई रुपयोंकी थैलीको ही देखता है परन्तु गुप्तवेशमें