________________
[नवमाँ
३१२1
अध्यात्मकल्पद्रुम - तावेव यदिन स्यातां, तपसाकि प्रयोजनम् ?
___ " यदि रागद्वेष हो तो फिर तपसे क्या प्रयोजन है ? इसीप्रकार यदि वे न हों तो भी फिर तपसे क्या काम है ?"
इस सबका सार यह है कि मनको वशमें रखनेकी अत्यन्त आवश्यकता है । इसी विषयको नीचेके श्लोकमें अधिक स्पष्ट करते हैं। मनोनिग्रहरहित दानादि धर्मोंकी निरर्थकता. दानश्रुतध्यानतपोऽर्चनादि, ___ वृथा मनोनिग्रहमन्तरेण । कषायचिन्ताकुलतोज्झितस्य,
परो हि योगो मनसो वशत्वम् ॥ ६ ॥
" दान, ज्ञान, ध्यान, तप, पूजा आदि सब मनोनिग्रह बिना व्यर्थ हैं। कषायसे होनेवाली चिन्ता और भाकुलव्याकुलतासे रहित ऐसे प्राणीको मन वश करना महायोग है।"
उपजाति. विवेचन--दान पांच प्रकारके हैं। किसी भी जीवको मृत्युसे बचाना अभयदान, पात्रको देखकर योग्य समयपर योग्य वस्तुको योग्य रीति से दान देना सुपात्रदान, दीन दुःखीको देखकर दया करके दान देना अनुकम्पादान, सगे स्नेहियों को यथायोग्य अवसर मानेपर यथायोग्य अर्पण करना उचितदान,
और अपना नाम कायम रखने प्रशंसा निमित्त दान देना कीर्तिदान, कहलाता है । इन पांचों से प्रथम दो उत्तम प्रकारके होनेसे मोक्षपद देनेवाले हैं और अन्य तीन भोग-उपभोगकी प्राप्ति आदि फल देते हैं।