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अधिकार ] चितदमनाधिकार नहीं रहती है । मनको नियममें रखनेकी ऐसे महात्माओंको आवश्यकता नहीं रहती है, परन्तु स्वाभाविकतया ही उनका व्यवहार तदानुसार होता है । इसीप्रकार जिस प्राणीके मनमें संकल्पविकल्प उठते रहेते हैं उस प्राणीको यमनियमसे क्या लाभ होनेवाला है ? ऐसे प्राणीको साधन परिणामरहित होता है । इससे यह प्रयोजन कदापि नहीं है कि यमनियम निरर्थक हैं, वे चित्तदमनके परम साधन हैं, परन्तु यहां तो कारण दूसरा ही है । मतलब यह है कि यमनियम रखने पर भी यदि मन वशीभूत न हो तो सब व्यर्थ है; इसलिये यमनियमके सच्चे फलकी अभिलाषा हो तो मनको वशमें करना सिखो,अभ्यास डालो।
टीकाकार यमनियमपर नीचे लिखेनुसार उपयोगी नोट लिखता है । जिससे चित्त नियममें-अंकुशमें आवे वे नियम पांच प्रकारके हैं । १ काया और मनकी शुद्धिको शौच कहते हैं। २ समीपके साधनोंसे अधिक प्राप्त करने की अभिलाषा न होना संतोष कहलाता है । ३ मोक्षमार्ग बतानेवाले शारोंका अध्ययन करना अथवा परमात्मजप यह स्वाध्याय कहलाता है। ४ जो कर्मोंको तपाते हैं वे चांद्रायण आदि तप कहलाते हैं। ५ वीतरागका ध्यान करना देवताप्रणिधान कहलाता है । यम पांच प्रकारके हैं । अहिंसा, सुनृत, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अकि. चनता, ये पांच प्रसिद्ध हैं।
इन यम और नियमका विचार करके इनका पालन करनेसे मनपर अंकुश लगजाता है । इसमें कार्यकारण भाव अरस्परस है वह थोड़ासा विचार करनेसे समझमें भाजायगा । इसीप्रकारकी कटाक्ष भाषामें शास्त्रकार अन्य स्थानपर लिखते हैं कि:
रागद्वेषो यदि स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ? .