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अध्यात्मकल्पद्रम
[ अष्टम
भोगने पड़ें। शास्त्राभ्यासद्वारका चतुर्गति दुःखदर्शनके साथ क्या सम्बन्ध है वह यहां स्पष्ट हो जाता है ।
सम्पूर्णद्वारका उपसंहार. आत्मन् परस्त्वमसि साहसिकः श्रुताचे- .
यद्भाविनं चिरचतुर्गातिदुःखराशिम् । पश्यन्नपीह न बिभेषि ततो न तस्य, विच्छित्तये च यतसे विपरीतकारी ॥ १६ ॥
" हे आत्मन् ! तूं तो असीम साहसी है, कारण कि भविष्यकालमें अनेकों वक्त होनेवाले चार गतियोंके दुःखोंको तूं ज्ञानचक्षुओंसे देखता है तिसपर भी उनसे नहीं डरता है, अपितु उन्टा विपरीत आचरण करके उन दुःखोंके नाश निमित्त अन्पमात्र भी प्रयास नहीं करता है।"
. वसंततिलकावृत. विवेचन-शत्रुओंको आँखोसे देखनेपर भी जो उनकी उपेक्षा करता है उसको यदि बेवकूफ न कहा जावे तो क्या कहा जावे ? तूने चार गतिके दुःखोंका अनुभव किया है, भोगे हैं, सुने हैं और अभी भी तेरी ज्ञानदृष्टिके समक्ष प्रगट हुए हैं, इतना होनेपर भी तूं उनके नष्ट करनेका यत्न नहीं करता है तो फिर तेरी बुद्धिमत्ता व्यर्थ कहलायगी और तूं मूर्ख समझा जायगा।
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इस प्रकार पाठवां द्वार पूर्ण हुा । प्रथम भागमें शानाभ्यासका फल बताया गया उसमें बताया गया है कि जो प्राणी अभ्यासानुसार वर्तन नहीं करते हैं वे चतुर्गतिमें भटकते रहते हैं। उत्तर विभागमें जो सारांशमें चारो गतियोंके दुःख बताये गये हैं वे मनन करने योग्य हैं । शास्त्रकारका यही कर्तव्य है कि