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अध्यात्मकल्पद्रुम . [ अष्टम ये सात भय मनुष्यभवमें अनेक कष्ट देनेवाले हैं। इनके भी उपरान्त इस मनुष्यभवमें राजा, चोर आदिकी ओरसे पराभव होता है । प्रेमी पुत्रका मरण, स्त्रीसे वियोग, धन कीर्त्यादिका नाश आदि अनिष्टों का संयोग, इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग यह चेतन भचेतन आदि सब पदार्थोंके सम्बन्धमें होता है, तदु. परान्त खराब संयोगोमें रहना, मूर्ख राजा अथवा शेठकी नौकरी करना, मूर्ख स्त्रीके साथ जीवन व्यतीत करना, पुत्रकी प्राप्ति न होना, अनेक पुत्रियोंका पिता होना, द्रव्य उपार्जन निमित्त परदेश भ्रमण करना, नीच शैठोंके कूढ़ मस्तिष्कमेंसे निकलनेवाली अनेकों विचित्र आज्ञाओंका पालन करना, ये इस मनुष्यभवमें होनेवाले अनेकों दुःखों से कुछ हैं । परन्तु खेद है कि यह जीव तो इनका विचार भी नहीं करता है। संस्कृतमें एक स्थानपर कहते हैं कि " प्रथम तो माताके गर्भ में अनेक दुःख हैं, तत्पश्चात् बालपनमें पराधीनवृत्तिका दुःख, युवावस्थामें स्त्रीवियोगका दुःख
और वृद्धावस्था तो दुःखपूर्ण होनेसे असार ही है । इस मनुष्यजन्ममें हे भाइयों ! कहो कि क्या सुख है ? यदि हो तो बताओ।" ऐसा यह जीव जानता है तिसपर भी संसारमें फँसा रहता है । कोई प्रेमी तो स्नेहीसगेकी मृत्युपर जोरसे चिल्ला कर रोता है; परन्तु विचार भी नहीं करता है कि यदि यह मनुष्यभव अमर भी कर दिया जावे तो भी इस जीवका यहां ठहरना कठिन है । यह तो पचास या साठ वर्ष पर्यन्त रहनेवाला है, यह कुछ ठीक प्रतीत होता है। अन्यथा तो बड़े होने पर शोकादिके कारण उत्तरदायित्व तथा पंचायती इतनी अधिक बढ़ जाती है कि यदि यह जिन्दगी अमर हो गई हों तो संसार छोड़ कर भगजानेकी नोबत आ जाय ।
इसप्रकार मनुष्यभव भी दुःखजन्य ही है तो फिर दुःखों