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अधिकार ]
शास्त्राभ्यास और वर्तन
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पंच इन्द्रियोंके विषयों में आसक्त, अंगभंग और रोने तथा-बिलाप करने से छ महिने पहलेसे जाग्रत होनेवाले देवता भी करोड़ों वर्षोंके सुखके अन्तमें सब खो बैठते हैं । इस सबसे यह स्पष्ट . तया सिद्ध है कि पौद्गलिक सुख सुख कदापि नहीं है ।
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जबतक मानसिक सुख - ज्ञानानन्द नहीं तबतक स्थूल पौद्गलिक सुख चाहे जितना भी क्यों न हो परन्तु उससे अल्पमात्र भी आनन्द प्राप्त नहीं होसकता है । देवगतिमें स्थूल सुख की तो कदाच पराकाष्ठा होती है फिर भी उससे कुछ सुख नहीं होता है और अन्त में अत्यन्त कष्टों को देनेवाला है । देवगति में भी जिसमें कि अत्यन्त सुख होनेकी सम्भावना रहती है वहाँ भी वास्तविक सुख नहीं है ।
मनुष्यगतिके दुःख. सप्तभीत्यभिभवेष्टविप्लवानिष्टयोगगददुःसुतादिभिः' । स्याश्चिरं विरसता नृजन्मनः,
पुण्यतः सरसतां तदानय ॥ १४ ॥
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सात भय, पराभव ( अपमान ), ( धो साहुना है ) प्रेमीका वियोग, अप्रियका संयोग, व्याधियें, कष्टप्रद सन्तान मादिके कारण मनुष्यजन्म भी अने कवार निरस हो जाता है, अतः पुण्यद्वारा मनुष्यपनको मधुर बना ।"
स्वागता.
विवेचन – इसलोकका भय, परलोकका भय, आदान( अपनी वस्तु चुराली जानेका ) भय, अकस्मात्भय, भरणपोषण ( आजीविकाका) भय, मरणभय और अपकीर्त्तिभये
१ दुष्कुटंबिकैरिति वा पाठ: ( खराबकुटुम्ब ) आदि । २ लोकापवाद भय अथवा अपयशका भय ।
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