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अधिकार ] शास्त्राभ्यास और वर्तम कानका छेदना आदि तिर्यचमें अनेक प्रकारका भय रहता है । बेचारेसे बोला नहीं जासकता, सहनशीलता रखनी पड़ती है । इसप्रकारके कष्ट विषयकषायमें मस्त प्राणीको भोगने पड़ते हैं अतः सबको इनसे सचेत होजाना चाहिये । यहाँ जिन तियंचगतिके दुःखोंका वर्णन किया गया है वे सब जीवोंके लिये हैं; तदुपरांत अमुक जाति के दुःखोंका विचार किया जाय तो वे . बहुत होजाते हैं । दृष्टान्तरूप कितने ही दुःख तो अश्वको विशेषतया होते हैं, कितने ही बैलको विशेषतया होते हैं, कितने ही श्वानको विशेषतया होते हैं; यह प्रत्येक दिनके अनुभवका विषय है, अतः ग्रन्थगौरवके भयसे इसका यहाँ विस्तारपूर्वक वर्णन करने में असमर्थ हैं । एकेन्द्रियादिके अव्यक्त दुःखोंका वर्णन करना भी यहां अशक्य है । इस सबका सारांश यह है कि उस गतिमें सुख कदापि नहीं है ।
देवगतिके दुःख. मुधान्यदास्याभिभवाभ्यसूया,
भियोऽन्तगर्भस्थिति दुर्गतीनाम् । एवं सुरेष्वप्यसुखानि नित्यं,
किं तत्सुखैा परिणामदुःखैः ॥ १३ ॥
" इन्द्रादिककी निष्कारण सेवा करना, पराभव, मत्सर, भंतकाल, गर्भस्थिति और दुर्गतिका भय-इसप्रकार देवगतिमें भी निरन्तर दुःख ही दुःख हैं। अपितु जिसका परिणाम दुःखजन्य हो उस सुखसे क्या लाभ ?” उपजाति
विवेचन-१ मनुष्य जो दूसरोंकी नोकरी करता है उसका कारण अपनी आजीविकाका कमाना होता है, परन्तु देवताओंको आजीविकाका कारण तथा द्रव्यप्राप्तिका कारण