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अधिकार ] शास्त्राभ्यास और बर्तन [२९५
मनुष्यका आयुष्य महामारी, शस्त्राघात, भय आदि कारणोंसे नाश होता है इसलिये वह सोपक्रम होता है, परन्तु नारकीके जीवका आयुष्य तो किन्हीं भी कारणोंसे नाश नहीं हो सकता.है । शरीरके अनेकों टुकड़े होजाने पर भी पारेके समान वे फिरसे जुड़ जाते हैं । अपितु नारकीका प्रायुष्य सागरोपम है । सागरोपम अर्थात् असंख्याता वर्षों का एक पन्योपम और दश कोटाकोटि पल्योपमका एक सागरोपम होता है। पल्योपम. का भी विचार माना कठिन है। (पांचवें कर्मग्रन्थकी ८५ वीं गाथा देखो) ऐसा बड़ा आयुष्य और उसमें दुःख ही दुःख हैं मर्थात् क्षणमात्रका भी सुख नहीं है। नरकभूमिका स्पर्श करना करततकी धारसे भी सख्त है । वहांकी शर्दिके सामने उत्तरीध्रुवकी शर्दि और वहाँके तापके सामने सहाराके रेगिस्तानका साप किसी भी गिनती में नहीं है। क्षेत्रवेदना बहुत सख्त है; कितने ही क्षेत्र तो तद्दन ठंदे हैं, जहाँकी ठंढक सहन नहीं की जा सकती है, और कितने ही क्षेत्र तहन गरम हैं। उनके दुःखोंका ख्याल इससे जान पड़ेगा कि नारकीके जीवको उष्ण क्षेत्र में इतनी वेदना होती है कि यदि उसको खेरके अंगारोंसे भरी हुई खाईमें भर प्रीष्मऋतु में भी सुलाया जावे तो वह उसको भी उस नरक वेदना आगे ऐसा समझेगा मानो कोई मनुष्य कमलकी शय्यापर सुखसे सौता हो और वहाँ वह छमास तककी निद्रा लेनेमें उद्यत होगा । यह प्रथम प्रकारकी क्षेत्रवेदना है। जिज्ञासु इसका विशेष स्वरूप जानने निमित्त दूसरे ग्रन्थोंका अवलोकन करें।
दूसरे प्रकारकी परमाधामीकृत वेदना है । इन हल्की जातके देवोंको जीवोंको दुःख देने में ही आनन्द आता है । वे उनको मारते हैं, पीटते हैं, उनके शरीरको छिन्नभिन्न करते हैं, काटते हैं, उनको रुलाते हैं, एकपर दूसरेको गिराते हैं, करवतसे काटते