________________
अधिकार] शास्त्राभ्यास और वर्तन [२९१ अष्टक बहुत मनन करनेयोग्य है । जब तक विषय प्रतिभास ज्ञान होता है तब तक बहुत लाभ होनेकी सम्भावना नहीं रहती है। वर्तमान युगमें शानका प्रभाव नहीं है, ज्ञानियों का भी प्रभाव नहीं है, परन्तु विशेषतया ऊपर बतायेनुसार ही ज्ञान देखा जाता है। जिसके परिणामस्वरूप त्याग तथा प्रहणका शुद्ध स्वरूप मालूम नहीं होता है और इससे त्यागवैराग्य भी नहीं होता है । शास्त्रकार इस ज्ञानको अज्ञान ही कहते हैं । जब वस्तुस्वरूपका शुद्ध भान करानेवाले तत्त्वसंवेदन ज्ञानकी प्राप्ति होती है तब ही ज्ञानी होने का दावा किया जासकता है और ऐसे ज्ञानीके विषयमें इस सम्पूर्ण अधिकारमें कुछ कहने योग्य प्रतीत नहीं होता है । यहां जो कुछ भाक्षेप किया गया है वह प्रथम प्रकारके ज्ञानके लिये ही किया है।
- चतुतिके दुःख.
शास्त्राभ्यासके द्वारमें जो हकिकत कही गई है उसको जाननेके पश्चात शास्त्रके साररूप एक हकिकत यहां बतलाई आती है। वह यह है कि इस संसार में कहीं भी क्यों न जाओ परन्तु सुख कहीं भी नहीं मिल सकता है । संसारके सर्व जीवोंका चार गतिमें समावेश होता है:-१ नारकी, २ तिथंच (जिसमें पृथ्वी, जल, अमि, पवन और वनस्पति तथा जन्तु, मांकड़, बिच्छु, पक्षी, जलचर, पशु आदि जीवोंका समावेश होता है ), ३ मनुष्य और ४ देव ।
इन चार गतियों में से एकमें भी सुख नहीं है ऐसा बतलाकर शास्त्रका रहस्य बतलाते हैं और उसके परिणामस्वरूप जीवको संक्षेपसे उपदेश करना चाहते हैं।