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धारणा हो
मानी पुरुष तो
जोमवर्तन भी नहीं
अधिकार]. शास्त्राभ्यास और वर्तन [ २८ हो । अपितु श्रोताओंकी तो उस समय ऐसी भी धारणा होजाती है कि ऐसा महान् तत्त्वज्ञानी पुरुष तो आरम्भादिक तथा भाभवमें प्रवर्तन भी नहीं करते होगें; परन्तु यदि घरेलुप्रकारसे जो खानेपीनेमें, सांसारिक सुखभोगमें, व्यवहारमें, लेनदेनमें और प्रमाणिकपनमें उनका व्यवहार देखा हो तो उनके शानका लेशमात्र भी प्रभाव उनमें दृष्टिगोचर नहीं होता है । ऐसे कितने ही ढोंगी अत्यन्त हानि पहुंचाते हैं, स्वयं डूबते हैं तथा पत्थरकी नावके सहश अपने साथ साथ में बैठनेवालोंको भी डूबोते हैं, उसीप्रकार धर्मका भी हास करते हैं। ज्ञान तथा क्रियाकी अमुक हद तक आवश्यकता है । इससे यह प्रयोजन नहीं है कि हम क्रियाका एकान्त पक्ष लें; ज्ञानाभ्यासकी अत्यन्त भावश्यकता है, यह हमें स्वीकार करना चाहिये; परन्तु अनेकों प्रमादी जीव इसकी प्रोटमें क्रियाकी ओर अप्रीतिका दिखाव करें इतना ही नहीं अपितु शुद्ध क्रिया करनेवाले की हँसी उड़ाते हैं । उनको निम्न लिखित दो महान वाक्योंको लक्ष में रखनेकी आवश्यकता है।
"क्रियारहित केवलमात्र ज्ञान निष्फल है। मार्गका जाननेवाला पथिक भी गति क्रिया बिना वाँछित नगरको नहीं पहुँच सकता है ।" (ज्ञानसागर ९-२) " क्रिया बिना ज्ञान नहीं कबहुं,
क्रिया ज्ञान बिनु नांहीं। क्रिया ज्ञान दोउ मिलत रहत है, ज्यों जलरस जलमांही ॥"
परमगुरु जैन कहो क्युं होवे ? यह भी एक धुरन्धर विद्वानका महावाक्य है । कहनेका यह तात्पर्य है कि दिखाव न करो, शुद्ध व्यवहार रक्खो, प्रत्येक