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अध्यात्मकल्पद्रुम
[अष्टम नहीं होनेपर भी अभियोगादि . भावनाओं द्वारा पूर्वोपार्जन कर्मके
आधिनपनसे बिना कारण ही इन्द्रादिककी सेवा करनी पड़ती है।
२ अपनेसे अधिक शक्तिशाली देवता अपनी स्त्रीको लेकर भग जाय आदि अभिभव-पराभव ।
३ दूसरोंका उत्कर्ष सहन न करना यह असूया । देवता. ओंको दूसरे देवताओं का विशेष सुख देखकर अत्यन्त ईर्षा होती है ।
४ देवताओंको मृत्युका अत्यन्त भय रहता है । फूलकी मालाका कुम्हलाना आदि मृत्युके चिन्ह देखकर छ महिने पहले से ही वे विलाप करना प्रारम्भ कर देते हैं।
५ मृत्यु के पश्चात् गर्भ में नो मास तक अशुचिभंडारमें उल्टा लटकना पड़े। ऐसे विचारोंसे मूर्छित भी होजाते हैं, अथवा पशु-पक्षी या एकेन्द्रियोंमें जाना पड़ेगा इसका भी उनको अत्यन्त भय रहता है ।
६ इसीप्रकार दुर्गतिमें जानेका भी अत्यन्त भय लगा रहता है।
देवताओंमें खटपट बहुत होती है, लडाइयें भी अनेकोंबार होती हैं और चित्तव्यग्रता बहुत रहती है। एकमात्र ऋद्धि उनको प्राप्त होती है, परन्तु उससे उनको कुछ मानसिक आनन्द नहीं मिलता है और उस सुखका देवतालोग उपभोग नहीं कर सकते हैं।
पौद्गलिक सुख अल्प है ऐसा थोड़ी देर के लिये मान भी लें तो भी देवगतिमें की हुए विषयाशक्तिके परिणाममें जब अधःपतन होता है तो फिर उसको सुख किस प्रकार कहैं ? उपदेशमालामें धर्मदासगशि कहते हैं कि 'च्यवन (मरण) के समय देवतालोग अपने पूर्वका सुख और भावीमें प्राप्त होनेवाला दुःख का विचार कर सिर पीटते हैं और दीवारसे सिर फोड़ते हैं। "