________________
२९२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[अपम नरकगतिके दुःख. दुर्गन्धतो यदणुतोऽपि पुरस्य मृत्युरायूंषि सागरमितान्यनुपक्रमाणि । स्पर्शः खरः क्रकचतोऽतितमामितश्च, दुःखावनन्तगुणितो भृशशैत्यतापौ ॥ १० ॥ तीवा व्यथाः सुरकृता विविधाश्च यत्राक्रन्दारवैः सततमभ्रभृतोऽप्यमुष्मात् । किं भाविनो न नरकात्कुमते विभेषि, यन्मोदसे क्षणसुखैर्विषयैः कषायी ॥११॥ युग्सम्
" जिस नारकी की दुर्गंधी के एक सूक्ष्म भाग मात्रसे (इस मनुष्यलोकके ) नगरकी (इतने नगरनिवासी प्राणियोंकी) मृत्यु होजाती है, जहाँ सागरोपमके समान आयुष्य भी निरुपक्रम होजाता है, जिसका स्पर्श करवतसे भी बहुत कर्कश है, जहाँ शीत-धूपका दुःख यहाँसे ( मनुष्यलोकसे ) भनन्तगुणा अधिक है, जहाँ देवताओंकी की हुई अनेक प्रकारकी वेदनायें होती हैं कि जिनके रोने, चिल्लाने और आक्रन्दसे सम्पूर्ण आकाश भरजाता है - इस प्रकारकी नारकी तुझे भविष्य में प्राप्त होनेवाली है; किन्तु हे कुमति ! इसका कुछ भी विचार न कर तूं क्यों कषाय करके तथा अल्प समयके लिये सुख देनेवाले विषयोंका सेवन करके आनन्द मानता है ?"
वसंततिलका. विवेचन-नारकीमें इतनी दुर्गध होती है कि उसके बहुत सूक्ष्म भागसे भी सम्पूर्ण नगरवासियों की मृत्यु होजाती है ।
' पुरस्य स्थाने परस्य इति पाठान्तरं अन्य जनस्य-मनुष्यस्य इत्यर्थः ।