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अधिकार] शास्त्राभ्यास और वर्तन [२७३
विवेचन-साधुके व्याख्यान, प्रन्थोंका अभ्यास, शास्त्रका श्रवण आदि प्रसंग हृदयतटपर ज्ञानलहरीका सुगन्धित पवन थोडेसे समयके लिये बहाते हैं और अनेकों मनुष्योंको तो यह थोडासा आनन्द देकर विलीन हो जाता है । जिस प्रकार पानीका प्रवाह शिलापर होकर चला जाता है लेकिन यदि आध घण्टे पश्चात् देखो तो शिला फिरसे जैसीकी तैसी पड़ी हुई दिखाई देती है, उसपर भिनाश भी नहीं रहने पाती और उसपर अंकुर भी नहीं उगने पाते हैं । उसपर जो अनेकों दिनों तक पानी बहता. रहा है वह सब निरर्थक हुआ; कारण कि जल अपना असर उसपर कहीं भी नहीं कर सका अथवा दूसरी तरहसे देखा जावे. सो शिलामें कोई ऐसा स्वभाव है कि पानी के प्राप्त होनेपर भी उससे लाभ उठानेमें वह अशक्य है । अतः शिला जैसे हृदयसे कुछ लाभ नहीं हो सकता है । जो ज्ञान ऊपर ऊपर ही से चला जाता है उससे लाभ क्या ? शास्त्रकार ऐसे ज्ञानको विषयप्रतिभास ज्ञान कहते हैं । मतिअज्ञानके क्षयोपशमसे यह ज्ञान प्राप्त होता है । वस्तुतः यह मतिज्ञानका विषय होकर अज्ञान ही है। इससे इन्द्रिय प्रत्यक्ष कितनी ही बातोंका ज्ञान होता है; परन्तु बालकको जिस प्रकार विष, कंटक या रत्नमें हेय उपादेयपनका ज्ञान नहीं होता है, उसीप्रकार इस ऊपर ऊपरके ज्ञानवालेको भी वस्तुतः हेय उपादेयपनका बोध नहीं होता है । व्यवहारसे वह महातत्त्वज्ञानी या फिलोसफर भी कहला सकता है, परन्तु जबतक उसकी प्रवृत्ति निरपेक्ष है तबतक उसका ज्ञान लाभदायक सिद्ध नहीं हो सकता है। हृदय जब क्षेत्रकी फलद्रुप भूमिके समान बन जाता है तब उसपर सिद्धान्तजल पड़ने पर उसमें सर्व जीव प्रति मैत्रीभावरूप आर्द्रता प्राप्त हो जाती है और ऐसा