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२८२] . अध्यात्मकल्पद्रुम [अष्टम है यह बहुत उत्तम रीतिसे समझाया गया है, परन्तु अनर्थका त्याग नहीं हो सकता है । यह ज्ञान शुद्ध, श्रद्धावाले अविरतीको होता है । इस ज्ञानमें उस प्रकारकी प्रवृत्ति नहीं होती है, परन्तु वह ज्ञानवान् शुद्ध मार्गके सन्मुख है और वैराग्य उत्पन्न होनेका उसको कारण प्राप्त हुआ है। ऐसे ज्ञानवालेको भी ख़ुशी न हो जाना चाहिये । जबतक ऐसा अभ्यास न किया जाय कि जिससे भवचक्रमें भटकना बन्द हो जावे तबतक इच्छानुसार कोई उपयोगी नहीं हो सकता है।
शास्त्राभ्यास करके संयम रखना. धिगागमैर्मायसि रञ्जयन् जनान् ,
नोद्यच्छसि प्रेत्यहिताय संयमे । दधासि कुक्षिम्भरिमात्रतां मुने, ... क ते क तत् कैष च ते भवान्तरे॥६॥
"हे मुनि ! सिद्धान्तोंद्वारा तू लोगोंको रंजन करके प्रसन्न होता है परन्तु तेरे स्वयं के प्रामुष्मिक हितनिमित्त यत्न नहीं करता है अतः तुझको धिक्कार है ! तू एक मात्र पेटभरापन ही धारण करता है। परन्तु हे मुनि ! भवान्तरमें वे तेरे पागम कहाँ जायेगें, वह तेरा जनरंजन कहाँ जायगा और यह तेरा संयम कहाँ चला जायगा ?" उपजाति. .. विवेचन-शास्त्राभ्यास करके क्या करना चाहिये वह अपर सामान्य शब्दोंमें बताया गया है, यहां स्पष्ट शब्दोंमें मुनिको उद्देश करके कहते हैं कि यदि पांच इन्द्रियोंपर संयम न हो तो तेरा सब अभ्यास व्यर्थ है, पेटभरापन ही है अर्थात् सर्वसंपत्करी भिक्षाका अधिकारी तू हो ही नहीं सकता है। ऐसे साधु नहीं तो इस भवको सिद्ध कर सकते हैं न परभवको ही सिद्ध कर
१ हरिभद्रसूरिका पांचवा अष्टक पढ़िये ।